पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१२९

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सोलहवाँ परिच्छेद

"विवाह होने पर भी जैसी मैं पहले यहाँ थी, वैसी ही वहाँ रही। कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वह न मुझसे बोलते, न बात ही करते। उनके माता-पिता को इससे बड़ी चिंता रहने लगी। उनकी माता अंत में खाट पर पड़कर चल बसीं।"

यहाँ शारदा ने फिर काँपती हुई साँस भरकर कहा―"कुछ ही दिनों में उनके पिता भी परलोक सिधारे, मैं अकेली रह गई। क्रिया-कर्म समाप्त होने पर भी हम लोग उसी उदा- सीन भाव से रहने लगे। अंत में मुझसे न रहा गया। एक दिन मैंने अत्यंत करुणा से उनके पैर पकड़कर कहा―'स्वामी, मेरा क्या अपराध है, जो मेरी कोई भी सेवा स्वीकार नहीं होती।'

"तीन-चार दिन से उनका जी बहुत ही बेचैन रहता था! इन शब्दों में दो वर्ष का दारुण दुःख भरा हुआ था। मेरे इन शब्दों से उनका हृदय हिल गया। उन्होंने नम्रता से कहा― 'तुम्हें किसी वस्तु का कष्ट तो नहीं है, शारदा!'

"मेरी हिलकियाँ बंध गईं। मैंने कहा―'तुम्हारी कृपा नहीं है, तो ये सुख क्या मुझे सुखी कर सकेंगे?' अब तक उन्होंने मेरा मुख नहीं देखा था। आज अचानक आँख उठाकर कहा― 'मैंने तो तुम्हें कभी अपमानित नहीं किया है।' मैं चुप हो गई! अपने जी की उन्हें कैसे समझाती! पर आँसू बह रहे थे। अचानक देखा, उनकी आँखें भी भर रही हैं। वे मोदी-से आँसू ढर-ढरकर धरती पर गिर गए। इसके बाद