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हृदय की परख

वह तुरंत ही धरती पर लोटकर बालकों की तरह रोने लगे। उन्होंने मेरे पाँव पकड़कर कहा―'देवी, क्षमा करो। मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ। जीवन में जो पाप कर चुका हूँ, उसे निबाहना ही होगा। तुम्हारा दुःख मैं जानता हूँ, पर दूर कैसे करूँ?' मैंने भी जल्दी से पाँव खींच लिए। मुझसे कुछ कहते ही न बना, मैं केवल रोती ही रही। मैंने समझा, यह जिस पाप की बात कह रहे हैं, वह मुझे कष्ट देना ही होगा। पर हाय, असल बात मैं क्या समझती। अंत में उन्होंने कहा―'बोलो, क्या पाकर तुम्हें सुख होगा?'

"तुम्हारी दया।"

"यह सुनकर वह करुणा से मेरी ओर देखने लगे। फिर उन्होंने आकाश की ओर देखकर कहा―'हे ईश्वर, बल दे।'

"उस दिन की बातचीत से चित्त कुछ प्रसन्न हुआ। जब मैं भोजन कराने गई, तो कुछ बात करने का बहाना सोचने लगी। अंत में एक बात सूझी। मैंने कहा―'शशिकला का ब्याह है। उसने एक महीने पहले से बुलाया है। आज ही दाई आई थी।'

"उन्होंने अत्यंत उदास भाव से कहा―'अच्छा, चली जाओ। कल मुझे भी काशी की ओर जाना है। दस-पंद्रह दिन लगेंगे। तुम अपने घर रहना।' यही बात पक्की हुई। दुसर दिन मैं यहाँ चली आई। मुझे यहाँ पहुँचाकर जब वह लौटने लगे, तो एक क्षण-भर ऐसी विलक्षण दृष्टि से उन्होंने