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हृदय की परख

दोनो ने देखा, सुंदरलाल न-जाने कब से खड़े हुए आँसू बहा रहे हैं। सरला ने दौड़कर उनका हाथ पकड़ लिया, और कहा―"बाबूजी, मैंने ऐसा पुरुष तो आज तक नहीं देखा। देखने की कल्पना भी नहीं की। मैं आपको देखती तो रोज़ थी, पर पहचानती नहीं थी। हृदय ऐसा अच्छा हो सकता है? बाबूजी, आज से मैं आप ही को पूजा करूँगी।" यह कहकर वह सुंदरलाल के चरणों पर ढुलक गई।