सत्रहवाँ परिच्छेद
सरला अब बड़ी उदास रहती है। उसका मुख-कमल सदा मुरझाया हुआ रहता है। सुंदरलाल और शारदा उसका जी बहलाने को बहुत कुछ चेष्टाएँ करते रहते हैं, पर होता कुछ नहीं।
जिन दुःखमयी घटनाओं की बात हम कह चुके हैं, उनके सिवा एक और कष्ट उसके हृदय को मसोस रहा है। वह प्रत्यक्ष देख रही है कि विद्याधर अब उससे उदासीन हैं। वह अब न वैसा अनुराग दिखाते हैं, न उत्कंठा; बल्कि मिलने में ढील-ढाल करते हैं। संसार में केवल जिसके हृदय का अभि- नंदन किया था, वही अब उपेक्षा कर रहा है, यह बात याद करके सरला बड़ी उद्विग्न हो उठो है। वह सोच रही है― पहले तो मैंने विवाह की बात सोची भी नहीं थी। उन्होंने ही यह विश्वास दिलाया था कि विवाह से अधिक पवित्र बंधन हमारा हो नहीं सकता। फिर वह कहते हैं―वचपन से वह मुझे याद करते रहे हैं। अब भी वह मिलने पर कैसे अकपट भाव से मिलते रहे हैं। अंत में मुझे उनके हृदय का अभिनंदन करना ही पड़ा। न करती, तो पाप होता, अपराध होता और मैं सुखी न रहती। अब उनके प्रस्ताव