को मैंने स्वीकार कर लिया है―माता ने भी इस विषय में प्रसन्नता प्रकट का है, फिर देर क्यों? जो करना है, उसे अभी कर डालना चाहिए। सभी कहते हैं कि यह बड़ा शुभ कार्य है, फिर शुभ कार्य में देर क्यों?
मेरा जी न-जाने कैसा हो रहा है। चित्त बिलकुल बेचैन है। कुछ नहीं कह सकती कि शांति कहाँ मिलेगी। यदि विवाह से सुख मिले, तो विवाह ही कर लूँगी। मेरा न सही, एक उदाराशय युवक का तो कल्याण होगा।
यह विचारते-विचारते सरला का माथा सिकुड़ गया। उसने सोचा―मेरा भ्रम है या वह सचमुच ही उपेक्षा कर रहे हैं? वह अब आते भी कम हैं। उस दिन यह कहकर तुरंत ही चल दिए थे कि काम ज़रूरी है, फिर आऊँगा। फिर अब तक फ़ुर्सत न हुई। काम तो पहले भी थे। आज तीन बजे आने को लिखा था, सो तीन की जगह पाँच बज गए। न-जाने ओर कब तक न आवेंगे। आते, तो आज सारी बात खोलकर कह देती। पर अब कब तक बैठी रहूँ? यह सोचकर सरला ने एक लंबी साँस ली, और उठ- कर भीतर शारदा के पास चली गई।
सरला को देखते ही शारदा ने बड़े प्यार से कहा―"सरला, कब तक उदास रहेगी?"
सरला बोली―"मा, जो बात चाहना से होती है, उसे तो मनुष्य त्याग दे सकता है; पर जो आप ही