पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४० हृदय की परख उसने कहा-"प्रथम भी तो मैं अज्ञात-कुलशीना थी।" युवक से कुछ उत्तर देते न बना। उसने कुछ सिटपिटा- कर कहा-"मैं तो वैसी परवा नहीं करता; पर पिता जातिवालों से डरते हैं।" सरला का मुख तमतमा आया। उसने उत्तेजित होकर कहा-"तो क्या तुम भी पिता से सहमत हो गए ?" युवक ने लाचारी का भाव दिखाकर कहा-"पिता की आज्ञा का पालन करना मेरा कर्तव्य होना चाहिए | फिर भी मैं उन्हें समझाने को चेटा करूंगा।' "क्या समझाने को चे?" “यही कि चाहे जाति चली जाय, पर मैं सरला से व्याह करूँगा।" "मेरे साथ व्याह करने से जाति क्यों चली जायगी ? मेरे माता या पिता कुजाति थे क्या ? या मैं ही कुछ दूषित हूँ ?" यह कहकर सरला तीक्ष्ण दृष्टि से युवक की ओर देखने लगी। युवक ने कहा-"नहीं, उनकी जाति में तो मैं दोष नहीं कहता; पर आपको उत्पत्ति जिस संबंध से हुई, उस संबंध को समाज घृणा की दृष्टि से देखता है।" सरला क्रुद्ध सर्पिणी की तरह चपेट खाकर बोली-“यह क्या ? आप मेरे श्रद्धेय माता-पिता की भी ऐसी आलोचना करने का साहस करते हैं ?" - -