पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१४३

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सत्रहवाँ परिच्छेद १४१ युवक ने तनिक नर्मी तथा बढ़ता से कहा- "देवी, आपका अपमान करना मेरा अभीष्ट नहीं ; जो बात है, सो कह दी ।" "तो क्या आप भी समाज से इस विषय में सहमत हैं ?" युवक ने मेज़ पर पड़े हुए एक काग़ज़ को मोड़ते-मोड़ते कहा-"जो बात जैसी है, वैसी माननी ही पड़ती है। तिस पर भी मैं आपका आदर करता हूँ।" सरला कुछ काल तक ज्ञान-शून्य की तरह चुपचाप बैठी रही। फिर बोली-"तो आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे ?" "प्रथम ही कह चुका हूँ कि पिताजी को राजी करूंगा।' "और यदि वह राजी न हुए ?" 'तो भी मैं आजन्म आपको अपने ही आत्मीय की तरह समझना रहूँगा" सरला के रोम-रोम में आग लग रही थी। उसी उत्तेजना में उसने कहा-तो आप पिता के इतने अधीन है" "आप ही कहिए कि यह मेरा कर्तव्य नहीं है “मैं वह नहीं पूछती। मेरा कथन यह है कि जब आप इतने पराधीन थे, तो आपने मुझसे वैसा प्रस्ताव ही बयों किया था ? आपने मुझे उस संबंध की बात ही क्यों सुझाई थी ?" युवक ने निर्लज्जता-पूर्वक कहा-"देवी, उस भूल के लिये मैं क्षमा माँगता हूँ। अब समय नहीं है। आज ही रात को मुझे जाना है।" "