१४४ हृदय की परख युवक चलने लगा, तो सरला ने बाधा देकर कहा- 'यह चित्र लेते जाइए।" "इसे रहने दीजिए। "कदापि नहीं। जार-पुत्री के पास इसकी शोभा नहीं है। आवश्यकता भी नहीं है।" युवक फिर ठहर गया । सरला ने वह चित्र उसके हाथ में दे दिया। युवक बोला-"क्या आप इसे स्वीकार न करेंगी ?" "नहीं।" 'क्यों" "क्सिलिये रक्खू ?" "यह तुम्हारा प्रेम-भाजन नहीं है ?" "बिलकुल नहीं।" "इसम तुम्हारी कुछ भी श्रद्धा नहीं है ?" "नहीं; जो थी, उसे अभी नष्ट कर चुकी।" युवक ने कड़ककर कहा-"बस, अब अपमान नहीं सहा जाता । बहुत हुआ। तुम्हारी घृणा के भाजन स्मृति-चिह्न का यहीं अंत हो ।" यह कहकर युवक ने उसी क्षण उस चित्र के टुकड़े-टुकड़े कर डाले, और जल्दी से बाहर निकल गया । उसी समय शारदा ने, जो युवक से व्याह का प्रस्ताव करने आई थी, कमरे में प्रवेश करके देखा–युवक जा रहा है । चित्र फटा पड़ा है । सरला निश्चल, स्तब्ध खड़ी है। उसकी आँखों
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