पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१४५

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सत्रहवाँ परिच्छेद सरला ने सतेज स्वर से कहा-"ठहगे।" इतना कहकर सरला ने अपना बक्स खोलकर एक छोटा- सा सुदर चित्र निकाला । यह उसने महीनों परिश्रम करके बनाया था। उसके नीचे सुनहरे अक्षरों में लिखा हुआ था-'श्रीयुत विद्याधर' । सरला ने क़लम लेकर उस पर लिखे हुए सुदर नाम को काट डाला, और युवक से कहा-"यह लो, जार-कन्या के पास-जिस दासी बनाने में पुरुष को जाति जाती है-यह चित्र रहने योग्य नहीं है। और, मेरे पूज्य गुरुदेव का नाम भी इस पर शोभा नहीं देता था । उसे मैंने काटकर नष्ट कर दिया है। युवक काठ के पुतले की तरह खड़ा देख रहा था । उसने बीच में कुछ कहना चाहा, पर कह न सका। सरला बोली-"आपका समय व्यर्थ जा रहा रहा है। स्वच्छंदता से जी चाहे, जहाँ जाइए।" युवक खड़ा रहा। उसके नेत्रों में आँसू भर आए। उसने कहा-"देवी ! एक बार विचारने का अवसर दीजिए-एक- दम न त्यागिए।" सरला की आँखों में आँसू नहीं थे। उसने एक ऐसी तेजो. मयी दृष्ट युवक पर डाली कि वह कॉप गया । उसने कहा-"आज्ञा हो, तो जाऊँ।" सरला ने दृढ़ता से कहा-"अच्छा।"