पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१४८

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अठारहवाँ परिच्छेद शारदा बोली-'यह क्या ?" परंतु उत्तर कुछ भी न मिला। सरला पत्थर की तरह निश्चल खड़ी हुई ज्वालामय नेत्रों से शारदा की ओर निहारती रही, मानो उसमें चेष्टा है ही नहीं। शारदा ने उसका हाथ पकड़कर कुर्सी पर बैठाया। सरला कठ-पुतली की तरह कुर्सी पर बैठ गई। अब भी वह निश्चल था। शारदा डर गई कि इसे लकवा तो नहीं मार गया, या इसका सिर तो नहीं फिर गया। कुछ देर में उसने फिर कहा-"बेटा, कुछ मैं भो तो सुनूं, बात क्या है । हुआ क्या ?" अब की बार सरला ने कुछ कहना चाहा, पर होठ फड़क कर रह गए। उसका मुंह सूख रहा था। जीभ तालू से सट रही थी। शारदा दौड़कर गई, और उसने एक गिलास पानी लाकर सरला के होठों से लगा दिया। उसे सरला चुपचाप पी गई । शारदा ने फिर ढाढ़स देकर कहा-"शांत होओ बेटा! ऐसी भी क्या बात है !" अब की बार सरला ने कहा-"मा, व्यभि- चार की संतान को वह नहीं ग्रहण करना चाहते । अब वह व्याह करने स्वदेश गए हैं।" यह आवाज सरला से बिलकुल ही नहीं