हृदय की परख वह कभी किसी पर अविश्वास नहीं करता था। इससे बड़े- बड़े चोर भी उसे धोखा न देते थे। दुष्टों से वह बचकर न चलता था। आश्चर्य की बात है कि मनुष्य चाहे दुष्ट हों या सज्जन, उससे सदा-सर्वदा एक-सा ही भाव रखते थे। किसी को उसे छलने का साहस ही न होता था । कदाचित कोई उदंड उसे हानि पहुँचाता. तो सत्य उसका कुछ भी ध्यान न करता-अंत में वह लज्जित होकर उसका दास बन जाता। इन तीन वर्षों में सत्य कुछ-का-कुछ हो गया है। पहले उस पर दया करने को जी चाहता था, उसे दिलासा देने की लालसा होती थी, और अब उस पर श्रद्धा करने को जी चाहता है-उससे कुछ आदेश पाने को मन होता है। वह अकेला कभी न रहता था। आज भी ऐले दुर्दिन में वह अकेला नहीं है। रह-रहकर हवा के झोंके उसके घर के किवाड़ों को खटका देते हैं। अचानक बाहर से मनुष्य कंठ का शब्द सुनकर सत्य ने कहा-'क्या बाहर कोई है ?" पर फिर कुछ नहीं सुनाई दिया। झमाझम मेह बरस रहा था । वायु की सनसनाहट में उसे फिर कुछ शब्द सुनाई दिया। सत्य ने कहा-"गोपाल, किवाड़ खोलकर देखो तो, बाहर कोई है।" गोपाल के किवाड़ खोलते ही बौछारों ने उसको घबरा दिया। तुरंत ही द्वार बंद करके उसने कहा-"ऐसे वक्त में
पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१५८
दिखावट