१५७ उन्नीसवां परिच्छद बाहर आदमी कहाँ हो सकता है भैया। हवा की तेजी का भी कुछ ठिकाना है ?" सत्य फिर आग तापन लगा, पर उसके कान वहीं लगे रहे । अचानक फिर कुछ स्वर सुनाई दिया। सत्य ने कहा-"देखो, फिर वहीं। अच्छा, ठहरो, मैं देखे आता हूँ।" यह कहकर सत्य स्वयं बाहर आया । बौहार आ रही थी। अंधकार में हाथ को हाथ नहीं सूझता था। एकाएक भीषण गर्जन के साथ बिजली कड़क उठी। सत्य ने उसी क्षणिक प्रकाश में दखा, सामने भीत के सहारे कुछ वस्तु-सी पड़ी हुई है। अब की बार फिर वहाँ से कराहने की ध्वनि आई। सत्य लपककर वहाँ पहुँचा. देखा, कोई स्त्री पड़ी है। सत्य उसे उठा लाया। तीनो आदमी जो ताप रहे थे, खड़े हो गए। बोले-"यह कौन है ?" सत्य ने उसे पलंग पर लिटा दिया। कपड़े उतारकर सूखे कपड़े पहनाए। इतनी देर में जो स्वस्थ होकर उसने गौर से देखा, तो उसके मुंह से जार से एक साथ निकल गया--"सरला ?" तीनो पढ़ोसी अचरज से बोले-"सरला यहाँ कहाँ सत्य ने कहा-"भाई ! जरा आग तो ले आओ। यह तो बिलकुल ठंडी है ! सरला आज यहाँ कैसे आ गई ?" सत्य का कलेजा धड़कने लगा। उसने देखा, सरला की भाँखें बंद हैं। होठ नीले पड़ गए हैं। नाड़ी बिलकुल मंद
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