पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१६१

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१५. उन्नीसवाँ परिच्छेद तुम अक्षय संपत्ति दे गई थीं। तुम्हारे ही रक्षा कवच से जी रहा हूँ सरला !" यह कहकर सत्य खाट के पास धती पर धीरे से बैठ गया। उसका सारा गात्र काँप रहा था । मुँह से बात नहीं निकलती थी। सरला ने सत्य का हाथ पकड़कर कहा-"सत्य ! तुमने बड़ी तपस्या की है । तुम कैसे हो गए हो ? तुम्हें देखने को कलेजा तड़फ रहा था। तुमने जब पत्र लिखा था, तब क्या तुम रोए थे सत्य ने काँपते-काँपते बड़ी कठिनता से कहा-"मेरी आराध्य देवी ! तुमने जो मार्ग बताया था, उसी पर चल रहा हूँ। वह पुण्य तो अवश्य था, पर यह नहीं जानता था कि भगवान् उसके प्रताप से इसी जन्म में मनोकामना पूर्ण करेंगे।" यह कहते-कहते सत्य रो उठा। उसके साथ हो तीन वर्षों का निराशा का दुःख जो उसके गेम-रोम में रम गया था, उसे याद करके वह बोला-"देवी ! क्या कहूँ, मैं इन तीन वर्षों में एक दिन भी नहीं सोया !" सरला ने सत्य के आँसू पोंछकर कहा-"भव दुग्खी क्यों होते हो ? कल तक धीरज धरो। मैं तुम्हारा ऋण परिशोध करने के लिये ही आई हूँ। बहुत थक रही हूँ। इस समय सो लेने दो। सवेर मैं तुमसे ब्याह करूंगी।" सत्य का ज्ञान नष्टप्राय हो रहा था। वह धीरे से उठकर चल दिया। सरला सो गई।