यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१३० À हृदय की परख सत्य को उस रात नींद नहीं आई। वारंवार वह सरला के कमरे में झोंककर देखता, सरला आराम से सो रही है। दिन निकल आया। पक्ष। चहचहाने लगे। सूरज की सुन- हरी धूप वृक्षों की चोटियों पर पड़ने लगी। सत्य ने सरला के द्वार पर से झाँककर देखा-सरला अभी सो रही है । रात का एक-एक क्षण कल्प के समान काटकर सत्य यह प्रभात देखा है, जिसमें सरला, उसके नेत्रों की ज्योति, हृदय का भूषण, आत्मा की तृप्ति सबके साथ उसकी होगी। पर वह तो अभी सो ही रही है । अंत में सत्य से न रहा गया । वह झपटकर भीतर गया, पर सरला वहाँ थी कहाँ ! उसका प्राण-पखेरू कव का उड़ चुका था। उसका बर्फ के समान श्वेत और ठंडा शरीर पड़ा हुआ जगत् के ज्ञान और महत्त्व का तिरस्कार कर रहा था! I love do not you you love