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पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/३०

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२८ हृदय की परख आकर दाना खिलाते हैं, और जब सबका मिलकर गान होता है, तब मैं अभागों को तरह उदास बैठी रहती हूँ। मुझे कुछ समझ नहीं पड़ता-मैं समझ की ऐसी हीन हूँ । पर मैं धीरे-धीरे उन्हें देखने योग्य बनने की चेष्टा कर रही हूँ । जब मनोरथ सफल होगा, तब अवश्य देख लूंगी-देखते ह। पहचान लूंगी। क्योंकि उनके हृदय को तो पहचानती हो हूँ । रही सूरत, सो वह भी वैसी ही होगी । उनकी एक धुंधली-सी आकृति मेरे हृदय-पट पर खिंच-सी गई है।" इतना कहकर सरला चुप हो गई । जब वह यह कह रही थी, तब उसकी आँखें ललचा-सी रही थीं। लोकनाथ का रोग न-जाने कहाँ चला गया था-मानो वह बिलकुल स्वस्थ था । सरला जब चुप हो गई, तब उसने सोचा कि सत्य इसके सामने क्या है ? पर उसे सरला विना सुख न होगा । बूढ़े ने कहा-"सरला बेटा ! तुझे आज पहचाना, पर अब क्या ? अब तो मैं चला । पहले से जान लेता, तो मरती बार मेरी आँखों में आँसू की जगह हँसी होती । तुम इतनी ऊँची दुनिया में हो बेटा ! पर अभी से यह भाव क्या तुम्हें श्रेयस्कर होगा ? मेरी तो यही इच्छा है कि तुम सुखी रहो । मेरा अनु.. रोध मान लो। सत्य से व्याह करके तुम्हें सुख ही मिलेगा। जहाँ तुम हो, वहाँ उसे भी ले जाओ।" इतना कहकर जो उसने सरला की ओर देखा तो उसकी आँखों में आशा के कुछ भी चिह्न न थे।