पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२
हृदय की परख

पास ही एक स्वच्छ पत्थर की शिला थी। उसी पर दोनो बैठकर झरने की शोभा निहारने लगे। सत्य बोला-"सरले ! उस परम पिता को धन्यवाद देना चाहिए, जिसने मनुष्यों के लिये ऐसे सुदर पदार्थ रचे है । मनुष्य चाहे कैसा ही संतप्त अथवा व्याकुल क्यों न हो, यहाँ आकर एक अद्भुत शांति उसके हृदय में बोध होने लगती है। इस मूक निर्जीव सौंदर्य में इतना आकर्षण क्यों है सरला?"

सरला ने तनिक गभरता से कहा-'तुम्हारी बात बिल-कुल सच्ची है सत्य ! किंतु क्या तुम इसका कारण नहीं जानते ? असल बात तो यह है कि मनुष्य यहाँ आकर अपनी तुच्छता. हीनता और अकमण्यता का वास्तविक बोध करता है। जिसे लोग मृक और निर्जीव सौंदर्य कहते हैं, उसे हम अपनी भाषा में स्थिर और निश्चल सौदर्य कह सकते हैं। जो सौंदर्य किसी चाहक की कामना करता है, वह ऐसा स्थिर नहीं रह सकता । रात में, दिन में. अंधकार में, प्रकाश में, गर्मी में, वर्ण में, चाहे जब आकर देख जाना, यह सौंदर्य ऐसा ही देख पड़ेगा । तुम इसके चाहक बनकर आए हो, पर तुम्हें दिखाने को ही इसका यह श्रृंगार नहीं है । यह इसका वास्तविक श्रृंगार है, और सहज श्रृंगार है। हमारे पास यह सब नहीं है। हमें यह दुष्प्राप्य है । हम केवल चाहक को दिखाने के लिये श्रृंगार करते हैं. पर वह स्वाभाविक नहीं होता, इससे अस्थायी होता है। यही कारण है कि हमारी आत्मा इसके