पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३१
चौथा परिच्छेद

उसे फटकारा, तो टक्कर मारने को दौड़ा । मैं उससे नाराज होकर आया हूँ।"

सरला ने कहा-"इसमें नाराज होने की क्या बात थी सत्य ! देखो, हिरन आदमी के पास भी नहीं फटकते। उसने तुमको अपना ही समझकर यह विनोद किया होगा ? इससे क्या तुम्हें नाराज हो जाना चाहिए? देखें, तुम्हारा कुरता कहाँ से खराब हो गया है? लाओ, मैं उसे धो दूं।"

सत्यत्रत ने तनिक सिटपिटाकर कहा-"ना सरले ! मैं उससे सचमुच नाराज थोड़े ही हूँ । उस बेचारे को इस बात का ज्ञान ही कहाँ है ? यह देखो, मैं अपना कुरता भी धो आया हूँ।"

सरला ने तनिक आग्रह के भाव से कहा-'किंतु सत्य ! वे वैसे अज्ञानी नहीं हैं। शिशु अज्ञाना होता, तो तुम्हारे पास ढिठाई कैसे करता ? तुम उसका बुरा नहीं मानोगे, यही उसे कैसे मालूम होता ?"

सत्य ने कुछ लज्जा की, हँसी हँसकर कहा-"अच्छा, तुम्हारी बात ही ठीक है सरले ! पर यहाँ बैठी-बैठी तुम क्या कर रही हो? चलो, सामने के भरने में चलकर स्नान करें,और कुंज की छाया में बैठकर बातें करें।"

सरला चुपचाप उठकर खड़ी हो गई । दोनों जंगल को चल दिए । शिशु भी उछलता, छलाँगें भरता, पीछे पीछे चला। अभी धूप अच्छी तरह नहीं फैली थी। दोनो भरने के निकट जा पहुंचे।