आने में देर न थी। गाड़ी आई, और सरला प्रयाग का टिकिट लेकर गाड़ी में जा बैठी। गाड़ी भीषण वेग से चल दी।
आज सरला की आत्मा में,अपूर्व आंदोलन हो रहा है। आज से प्रथम उसका मुख सदा बाल-सुलभ सरलता से भरा रहता था, पर आज उस पर कुछ ऐसा गंभीरता आ गई है, मानो वह बुढ़िया हो गई हो, और इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं था। सरला-जैसी रमणी असहाय, अकेली विदेश में निकली है,जहाँ उसका कोई नहीं। रह-रहकर उसका चित्त उद्विग्न होता है, और चिंता की छाया उसके मुख पर स्पष्ट दिखलाई पड़ती है।
जिस डिब्बे में सरला बैठी हुई अपने अँधेरे भविष्य की बात सोच रही थी, उसी में एक सज्जन बैठे हुए थे। उनकी अवस्था ४५ वर्ष के लगभग होगी । वह बड़े संभ्रांत और शिष्ट ज्ञात होते थे । सरला को निरंतर चिंता-मग्न देखकर
उन्होंने कहा-"देवी ! कहाँ जाना है ?"
सरला ने उनकी ओर तनिक झुककर कहा-"प्रयाग।"
"प्रयाग ? वहाँ क्या कोई तुम्हारा संबंधी है ?"
"नहीं!" यह कहकर सरला एकटक उन भद्र, पुरुष की ओर निहारने लगी।
उन्होंने फिर पूछा-"फिर कोई आवश्यक काम है।क्या ?"
"नहीं।"