छठा परिच्छेद
उसी दिन से सरला अत्यंत क्षुब्ध रहने लगी। अब उसका कहीं भी जी नहीं लगता । वह सोचती है--संसार में कैसे कैसे नीच प्राणी है। उनमें सबसे अधिक नीच मेरी ही माँ है। हे भगवान ! कहाँ तो वह समाधिस्थ महात्मा,और कहाँ मेरी माता ? सरला इसी एक बात को सोचते-सोचते बेचैन हो जाती । इधर यह सोच, उधर सत्य की विषाद मूति, इस पर भी उसके अत्यधिक स्नेह-भाजन लोकनाथ का अभाव; और यह ज्ञान कि यह मेरा घर नहीं है, मेरा वास्तविक पिता जाने कहाँ है । कैसा है । इन सब बातों का प्रभाव उस पर ऐसा पड़ा कि उसने चुपचाप वहाँ से चल देने की ठान ली । कछ काल तक उसके हृदय में संकल्प-विकल्प का घोर युद्ध होता रहा । जीवन भर को ममता को तोड़ना उसके सरल और कोमल हृदय के लिये बहुत ही कठिन काम था। पर अंत में एक दिन वह आवश्यक सामान लेकर चल ही दी। उस समय सूर्य पश्चिम में डूब रहा था, और पद-पद पर अंधकार बढ़ रहा था। उसका जाना किसी को भी ज्ञात न हुआ। सरला आज उसी अँधेरे में मिल गई । गाँव से स्टेशन दो मील था। जब सरला वहाँ पहुँची, गाड़ी