पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/५३

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छठा परिच्छेद

मिठास इसके मुख पर विराजमान है, और एक ऐसी प्रतिभा,श्री और माधुयं इसके नेत्रों में है कि कहा नहीं जाता। उन्होंने देखा,इसके मुख से जो बात निकलती है, वह अद्-भुत और नई होने पर भी हृदय के अंत तक घुस जाती है। मुख से मानो फूल बरसते हैं। कुछ देर तक देखते रहकर उन्होंने कहा-"तुम्हारा नाम क्या है देवी ?"

"सरला।"

"सरला नाम उचित ही है। अच्छा सरला! मेरा घर भी वहीं प्रयाग में है। जब तक तुम्हारा दूसरा प्रबंध न हो, उसे अपना ही घर जानो, मेरे घर में मेरी माननीया बड़ी बहन हैं । वह तुम्हारी पुत्रीवत् पालना करेंगी। उनके भी कोई नहीं है। वह आजन्म ब्रह्मचारिणी हैं। मेरी समझ में उनकी दयामयी गोद तुम्हें सुखद ही होगी।"

सरला ने शांति से कहा-"आपकी यह कृपा सिर आँखों पर; पर मुझे वहाँ क्या सेवा करनी पड़ेगी?"

"कुछ नहीं । जैसे अपने घर में रहती हो, वैसे ही रहना। पुस्तक अवलोकन की उन्हें बड़ी रुचि है। देखता हूँ, उधर तुम्हारी भी खूब प्रवृत्ति है।"

सरला ने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया। उसकी आँखें ऊपर आकाश की ओर उठी, और अत्यंत गुप्त भाव से उसने उस जगत्पति को प्रणाम कर लिया। वह भद्र पुरुष एकटक सरला के मुख को तक रहे थे। उन्होंने देखा,उसकी आँखें