पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/५९

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सातवाँ परिच्छेद

कुछ ठहरकर उन्होंने कहा-"यह क्या कहते हो? इस समानता का कुछ भी मेल नहीं है!"

"नहीं तो बहन ! तनिक देखो तो। रेल में सरला को देखकर ऐसा हुआ था, मानो इस सूरत का श्रादमी कहीं देखा है। पर कहाँ देखा है, सो कुछ याद न आता था। अब समझा, भूदेव ही का चेहरा आँखों में फिर रहा था । ये ऑंखें तो बहुत ही परिचित हैं। आह ! इन आँखों के साथ तो वर्षों खेला हूँ। भूदेव ! न-जाने तुम्हारी आत्मा कहाँ पड़ी तड़प रही होगी । हमें विश्वास है कि तुम चाहे कहीं होश्रो, पर हमें न भूले होगे।" यह कहकर उन भद्र पुरुष ने एक लंबी श्वास ली, और कमरे में टहलने लगे। प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ता था कि इस समय पसलियों के नीचे उनका ह्रदय अत्यंत बेचैन है। उसी दशा में वह कमरे से बाहर निकल गए|

शारदा खिड़की की राह बाहर मैदान की ओर शून्य दृष्टि से देख रही थीं। वास्तव में उनके मन में भी वैसी ही भावनाएँ उदय हो रहो थीं। उनके विचार उनके भाई से ज्यों-के-त्यों मिलते थे, पर उनका साहस उस चित्र को देखने का न होता था।

सरला ने देखा, जो मुख आनंद का उद्गम था, उस पर प्रबल विषाद की छाया विराजमान है । यह कैसा चित्र है, जिसका ऐसा प्रभाव है! उसने उठकर उस चित्र पर एक दृष्टि डाली।