पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/६३

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आठवाँ परिच्छेद

शारदा ने आँखें मीच लीं। वर्तमान युग पर पर्दा पड़ गया, और अतीत युग का अभिनय उनके नेत्रों में होने लगा।

गंगा की सफ़ेद रेती में, संध्या के धुँधले प्रकाश में, एक नन्ही-सी बालिका बैठी घर बना रही है, और एक बालक सामने खड़ा होकर उसका चित्र बनाने की चेष्टा कर रहा है। बालिका बार-बार हिल जाती है, सिकुड़ जाती है, और वह उसे फिर ठीक बैठालने का यत्न से आदेश करता है। चित्र नहीं बना। बालक ने क़लम-काग़ज़ फेक दिए, और नाराज़ होकर, एक वृक्ष की डाली पकड़कर खड़ा हो गया। बालिका से न रहा गया। उसने दौड़कर उसका हाथ पकड़- कर कहा―"अच्छा, आओ देखो, अब मैं न हिलूँगा!" बालक ने मुँह फेर लिया। कन्या बोली―"ओहो, ऐसा भी क्या मिज़ाज, बात भी नहीं करते। मैं कहती हूँ कि अब न हिलूँगी।" कन्या की भृकुटी टेढ़ी हो गईं। उसका मुँह फूल गया। बालक ने तनिक गर्दन टेढ़ी करके कुछ हँसकर कहा―"तो हमने जो इतना कहा कि सँभलकर बैठो, चुप बैठो, सुना क्यों नहीं? चित्र बनाना क्या आसान है? हाथ से बनाना पड़े, तो जानो।" फिर चित्र बनाया गया। चित्र बन गया! उसके नीचे लिखा गया 'शारदा'।

बालिका चित्र देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ी। "वाह- वाह! देखो, मेरी नाक कैसी टेढ़ी कर दी, और वाह, एक कान ही नदारद!" बालक ने गंभीरता से कहा―"तुम चित्र-कला