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हृदय की परख

हैं। मुझे आशा है, यह आपको परिश्रम-पूर्वक चित्र-विद्या सिखावेंगे।"

इस युवक का नाम विद्याधर है, यह सुनते ही सरला चौंक पड़ी। यही नाम तो उन समाधिस्थ महापुरुष का भी था, जो मेरे हृदय के गुरु हैं!

सरला ने आँख उठाकर युवक की ओर देखा, और नम्रता-पूर्वक धन्यवाद दिया। युवक ने आदर-पूर्वक कहा― "देवी! जब से मैंने आपके लेख पढ़े हैं, तभी से मैं एक बार आपके दर्शन करना चाहता था। अब जब मालूम हुआ कि मैं आपकी कुछ सेवा भी कर सकूँगा, तो मेरे हष का पार नहीं है। ऐसी सेवा क्या बिना भाग्य के मिल सकती है?

सरला ने देखा, युवक का भाषण गर्व और अनुराग से भरा हुआ है, और उसके नेत्रों में एक अपूर्व उत्साह चमक रहा है। न जाने क्यों उससे उसकी ओर देखा भी नहीं गया। सरला के नेत्रों में भी कुछ नशा-सा हो गया, शरीर में पसीना आ गया, उसका ऐसा भाषण उसे असह्य तो हुआ, पर बुरा न लगा।

उसने युवक को बिना देखे ही कहा―"आपके इस अनु- ग्रह के लिये सदा कृतज्ञ रहूँगी। मेरे ज्ञान-गुरु का भी यही नाम है, और आप भी गुरु बनते हैं, आपका भी यही नाम है।" यह कहकर सरला ने युवक की ओर देखना चाहा, पर आँखें न उठीं। सरला को आज प्रथम ही लज्जा हुई है।