पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/८१

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ग्यारहवाँ परिच्छेद

युवक चौंककर खड़ा हो गया। उसने लपककर सरला का हाथ पकड़ लिया। किंतु तुरंत ही छोड़कर वह फिर कुर्सी पर बैठ गया। कुछ ठहरकर उसने कहना शुरू किया― "इस असभ्यता को क्षमा कीजिए। मेरा मन बहुत ही उत्ते- जित हो गया था। क्या वही मूर्ति मेरे सामने है, जो १५ वर्ष से हृदय में रम रही है?" सरला चुपचाप अपने बनाए चित्र पर नज़र डाल रही थी। उसने कुछ कहना चाहा, पर कहा न गया।

युवक ने कहा―"मेरा अहोभाग्य है। तपस्या सफल हो गई। मुझे तो स्वप्न में भी ज्ञान नहीं था कि जिस पवित्र मूर्ति से एक बार नेत्र पवित्र हो गए हैं, पंद्रह वर्ष बाद उसी के हृदय से 'हृदय' तृप्त होगा, और अंत में उसकी सेवा से शरीर भी कृतार्थ होगा।" इतना कहते-कहते युवक―बहुत उद्विग्न हो चुका था, इस कारण―कुसी से खिसककर सरला के चरणों में आ रहा। आवाज़ भरी गई। शरीर काँप रहा था, उसने कहा―"हृदयेश्वेरीदेवी! रक्षा करा, हृदय नहीं रुकता। कब से रोक रहा था। आज क्या क्या बातें ज्ञात हो गई हैं! मेरी इस असभ्यता पर तिरस्कार करो, धिक्कारो, पर मुझे अपने चरणों से दूर न करो। यह साहस बड़ा कठिन है, पर मैं जानता हूँ, तुम अपराधी से भी घृणा नहीं करतीं। फिर मैं घृणा से डरकर ही क्या करूँगा? मेरा वश चलता, तो कभी ऐसी गुस्ताख़ी न करता। मेरा हृदय यद्यपि तुच्छ है,