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पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/८३

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बारहवाँ परिच्छेद

नदी का बाँध जब तक बँधा रहे, तभी तक ठीक है। एक बार प्रवाह जारी हो जाने पर फिर बंद होना दुर्घट ही हो जाता है। हमारी उस लोक की सरला भी इस लोक में लिप्त हो गई!

दोपहर के समय सरला भोजन करके बैठी है। स्नेहमयी शारदा अभी बातें करते-करते उठकर गई है। सरला कुछ सोच रही है। सामने की खिड़की की छड़ों पर उसकी दृष्टि लग रही है, पर वह उन्हें देख नहीं रही है। वह मन- ही-मन एक चित्र बना डालती है, और बिगाड़ डालती है। मानो बनाए नहीं बनता। कभी तो उसके मुख पर मुस- कान की प्रफुल्लता, कभी लज्जा की लाली, कभी भय की पीतता और कभी कौमार की मधुरता छा जाती है। उस समय सरला का मुख एक ऐसी रहस्यमय पोथी बन रहा था कि समझनेवाला क्या कुछ न समझ जाय! पर हाय! वहाँ था कौन?

उस समय वह सोच रही थी―"जब मैं डूब गई थी, तब क्या इन्हीं ने मेरे प्राण बचाए थे? जिस महापुरुष ने मेरे हृदय के पट खोल दिए हैं, क्या उन्हीं की आत्मा ने इस