शरीर में दर्शन दिए हैं? वही नाम, वही कुल, वही छवि, वही महत्व। फिर रह क्या गया? मैं कहती थी न कि वह एक दिन अपना स्वरूप भी दिखावेंगे; वही सच हुआ। हृदय को लालसा कभी नष्ट हो सकती है क्या? पर―पर―" सरला से आगे कुछ न कहा गया। उसके प्रफुल्ल ओष्ठ कुछ हिलकर रह गए। फिर सरला सोचने लगी―"मेरी यह वासना क्या स्वार्थ से सनी हुई नहीं है? 'सत्य' से क्या कह आई हूँ! उसने कैसे व्रत का उद्यापन किया है! उसका सारा सुख मैं ले आई हूँ। उसने खुशी से ले आने भी दिया है। उसने कहा था कि मैं इसी अवस्था में शांति को ढूँढ़ निकालूँगा।"
आह, कैसी महत्ता है! सरला का मुख गंभीर हो उठा। उसने एक ठंडो श्वास ली। ―यह तो बड़ा अत्याचार है। ऐसा परमार्थ किस काम का, जिस पर एक प्राणी का बलि- दान करना पड़े! क्या जाने, सत्य कैसा है? क्या उसे एक पत्र लिखूँ? सरला सत्य के लिये व्याकुल हो गई। वह फिर सोचन लगो―"यह विद्याधर महाशय भी तो मनुष्य है, फिर मैंने सत्य के ही मुख पर सत्य के हृदय को ठुकराकर अन्याय ही किया है?" इतना साचकर सरला एकाएक उठ खड़ी हुई। मेज़ की दराज़ को खोलकर वह एक तसवीर को बड़े ध्यान से देखने लगी। यह तसवीर विद्याधर ही की था। सरला सोचन लगा―"क्या जाने मेरा मन इस