झिमककर देखा, तो विद्याधर खड़े हैं। विद्याधर ने कहा― "शांत होओ देवी! ऐसी अधीरता क्यों?―"
सरला उठ खड़ी हुई। युवक ने देखा कि उसके आँसू ढरकने बंद नहीं होते। उसने सोचा―"सरला मेरे ही प्रेम में रो रही है।" अंत में उसने कहा―"यह क्या? आप तो रोती हैं! एक तुच्छ जीव के लिये ऐसा क्यों?"
अब तो सरला की हिचकियाँ बँध गई। बाँध टूट गया। वह वहीं देर तक फूट-फूटकर रोती रही। अंत में सिर उठाकर उसने कहा―"मैं तुम्हारे लिये नहीं रो रही हूँ।" युवक चकित हो गया। कुछ ठहरकर उसने कहा―"क्षमा करो देवी! आपके सम्मुख इसी कृपापात्र का चित्र रक्खा था, इसी से मुझे ऐसा भ्रम हुआ।" यह कहकर युवक ने खिन्न होकर सरला की ओर देखा।
"चित्र? क्या यह चित्र तुम्हारा है? "सरला ने यह बात तो अत्यंत तेज़ी से कह दी; पर तुरंत उठकर वह युवक के चरणों में आ गिरी। उसने गिड़गिड़ाकर कहा― "तुम कौन हो, सच कहो।"
"वही विद्याधर।"
"वही?"
"वही।"
"गुरुवर्य?"
"नहीं, तुच्छ दास!"