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पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/८५

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बारहवाँ परिच्छेद

मूर्ति की ओर क्यों खिंचता है। हो-न-हो यह उसी महा- पुरुष की आत्मा है।" सरला एक अतीत युग में डूब गई। उस महापुरुष का सारा जीवन आँखों के आगे नाचने लगा। वह कष्ट, वह वेदना, वह उदारता, वह पवित्रता देखकर सरला का स्वच्छ हृदय गद्गद हो उठा। आँसू बह आए। वह वहीं घुटनों के बल बैठ गई। उस मूर्ति की ओर हाथ जोड़कर सरला बोली―"भगवन्! गुरुवर्य! क्या तुम वही हो?―बता दो, क्यों भटका रहे हो? अभागिनी को भटकाओ मत। आपके चरणों में आपके चरणों की दासी बनकर फिर किसी की सेवा करने की लालसा नहीं रह जाती। देव! सैकड़ों वर्ष हुए, आपने इस पापमयी भूमि को त्याग दिया है। पर मेरी प्रतिज्ञा थी कि मेरा हृदय आजन्म आपका ही उपासक बनकर रहेगा। उसी आवेश में मैंने सत्य के हृदय को तुच्छता से ठुकरा दिया था। मैं आजन्म उन्हीं अतीत युग के चरणों की मन- ही-मन उपासना करती; पर आप क्या मेरा दुःख उत्कंठा लालसा-वासना समझकर सचमुच ही इस मूर्ति में अव- तीर्ण हुए हो, या यह सब मेरे हृदय की निर्बलता है― मोह है―स्वार्थ है।" इतना कहकर सरला हाथ जोड़े स्तब्ध रह गई। मोती-से आँसू ढरढर करके उसके गालों पर बह चले।

कुछ क्षण बाद किसी ने उसे पीछे से छुआ। सरला ने