पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/९५

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तेरहवाँ परिच्छेद

खड़ी थी। सरला की ज्यों ही उस पर दृष्टि पड़ी, उसे काठ मार गया। वह वहीं बैठ गई। घबराहट के मारे उसका सारा शरीर पसीने से तर हो गया। शारदा ने चकित होकर कहा―"यह क्या सरला! क्यों तबियत तो ठीक है?"

"सरला ने कातर स्वर से कहा―"मा! मैं कहाँ आ गई?"

अब तक गृह-स्वामिनी चुप थी। सरला को देखकर वह भी स्तब्ध रह गई थी, पर अब उसने सचेत होकर कहा― "भीतर आओ बेटा! यह तुम्हारा ही घर है। आज मेरे भाग्य, जो तुम आईं।" यह कहकर वह रमणी उसका हाथ पकड़कर उठाने लगी।

सरला ने धीरे से हाथ छुड़ाकर शारदा की ओर देख- कर कहा―मा! मेरा जी घबरा रहा है। मैं यहाँ न ठह- रूँगी। मुझे तो घर भेज दो।" शारदा ने उसके मुँह का पसीना पोंछते-पोंछते कहा―"इतनी दूर चलकर आई है न। अभी तबीयत ठीक हुई जाती है।"

इतने में गृह-स्वामिनी बोली―"भीतर चलकर विश्राम करो। मार्ग चलने से ऐसा हो ही जाता है।"

गृहिणी फिर हाथ पकड़कर उठाने लगी। सरला ने उधर से आँख फेरकर शारदा से कहा―"मा! ज़िद मत करो। मैं अभी घर लौट जाऊँगी।"

शारदा कुछ उदासी से बोली―"ऐसा क्यों? कुछ बात