पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२०

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पूज्य सावरकरजीने अनकी अनोखी पुस्तक का अनुवाद हिन्दी में लिखने की अनुज्ञा देकर मेरा बडा उपकार किया है। अहिन्दी प्रातोंमें हिन्दी प्रचार का काम करने में मेरा यह भी मन्तव्य था, कि राष्ट्रभाषा का भण्डार अन्य भारतीय भाषाओं के उत्तमोत्तम ग्रथों के अनुवाद से भर दिया जाय। किन्तु, केवल एकही पुस्तक अब तक मेरी सहायता से हिन्दी संसार के सामने आयी-वह है। हिन्दुओं की अवनति की मीमांसा'। मैंने राष्ट्रभाषा की सेवा के बल पर वह धृष्टता की; भारतियोंने बडी सहृदयता से उसका स्वागत किया। अब फिर मैंने दूसरी बार यह घटता की है। किन्तु, इस के बारे में मुझे झिझक नहीं, गर्व है। मै अपने भाग्य को सराहता हूँ कि मैं जैसे महान् ग्रंथ के विचारों का वाहक-भारवाहक-बना। महाराणा प्रताप को वहन करने में, उन के घोडे को-चेतक को-जिस गर्व का अनुभव होता होगा, वही गर्व मुझे सावरकरजी के अनमोल विचारों को वहन करने में होता है। क्योंकि, जब यह ग्रथ भारत में आ ही न सकता था, तब अिन के पन्नों को रट कर लोगों को सुनाने में मुझे बढा सतोष मिलता था। जिस ग्रंथने क्रांतिकारीयों को जीवनमंत्र पढाया, स. १९०९ में प्रकाशित अिस ग्रंथ में करेंगे,या मरेंगे; 'चलो दिल्ली। जैसे, आजकल भारतियों के गर्व के निवान बने, नारे प्रत्यक्ष दीख पडते हैं। अिस ग्रंथ को चोरी से पढने की लालसा श्री. राजगोपालाचारी भी संवरण न कर पाये थे। १९३० में बम्बई में अिस के पन्नों को टंकित कर खाँचवालों द्वारा वितरित करने में हम लोग मस्त रहते थे। पूज्य सुभाष चन्द्रजी पर अिस ग्रंथने प्रभाव डाला था। जैसे ग्रंथ का परिचय पूर्णरूपेण मेरे