पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२४७

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। अध्याय ८ वॉ] २०७ [कानपुर और झॉसी vrrn -10 उसकी बदूक अपने आप चल गयी ! यह ढकोसला सदासे ऐसाही चलता था; किन्तु अत्र उसके दिन लद गये थे। * __ इस अपमानसे सारी सेनामें कानाफूसी होने लगी, " अच्छा, ध्यान रहे हमारीभी बदूके आपसे आप ढग जायेंगी।" और हर सिपाहीके मॅहसे यही सुनाई देने लगा। जब सैनिक एक दूसरेसे मिलते तत्र कहते, "अच्छा, हमारी भी बदके अपने आप चलेंगी, है न ? और सारी सेनाम एक दूसरेसे मिलनेपर यही व्यग 'नमस्ते' के बदले रूद हो गया । फिर मी कुछ समयतक अपने क्रोध को काबेमें रखनेका निश्चय कर कानपुरवालोंने मेरठवालोंके समान उतावली न करनेकी ठानी।। आगमे घी उँडेलनेके लिए अंग्रेज स्त्रीपुरुपोंकी दो लागे गगाकी धाराम बहकर कानपुरके किनारे लगी। कानपुरके ऊपर कहीं बलवा होनेका यह प्रमाण मिल जानेसे कानपुरमें इस प्रकार भयकर बातें सुनायी पड़ने लगी "गगामैय्या ! सागरके अतल तलमे पहुँचानेके लिए तुझे पापके कितने गहर अपनी पीठपर दोने पडते होंगे?" अब तक 'भेडिया, 'भेडिया आया' वाली मिसाल होकर कई बार अग्रेजोंकी फजीहत हो चुकी थी। और जब; सचमुच, भेडिया आ जाता तब ये गडरियेके बच्चे वेखबर सोये पड़े मिलते। १ जूनको सर व्हीलरने कॅनिगको लिखा, "अगान्तिका भय अब टल गया है; अब कानपुरमे कोई खतरा नहीं ! यहाँ तक, कि अब मै लखनऊको भी यहाँसे महायतार्थ सैनिक भेज सगा!" और सच, प्रयागसे आयी गोरी कपनिया अब लखनऊकी ओर चल भी पड़ीं ! और ३ जूनको क्या ही आश्चर्य ! जिस कातिमे तीन हजार सिपाही, नर्तकियों, और सारी कानपुरकी जनता सभी सहयोगी बने उस _* (स. ३२)टेव्हेलियन कहता है, "हलके युरोपियनोंकी क्रूरता तथा सैनिक अधिकारियोंके न्यायकी छीछालेदरसे सिपाही परिचित थे । अन्य समय पर इस अत्याचार तथा उसके निर्णयपर शायद ही उन्हें आश्चर्य होता । किन्तु अत्र उनका खून उबल रहा था, उनका आत्माभिमान जागरित हो चुका था, जिससे किसी अॅग्लो-सॅक्सन वशीयके हक तथा सैनिक न्यायालय की दानाईको तरजीह देनेके लिए वे सिद्ध न थे।"-~-कानपुर पृ. ९३