पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३४२

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अनिमलय] २९८ [तीसरा खंड चतुरता से रचे हमे अपने रणव्युह की सैनिकों की पातीमें प्रवेश कर रहे थे। अंग्रेजों को भी अपनी जगहसे नानासाहब की मूर्ति स्पष्ट दिखायी पडती थी, जो सैनिकों की हर पाती में जाकर अन्हे प्रोत्साहित कर घोडा आगे दौडती घूम रही थी। दोपहर में नानासाहब के बाड़े पासेपर अग्रेजों की मुकरर चढाी शुरू हुी। अिस आकस्मिक और जोरदार आक्रमण को रोकने के लिमें क्रांतिकारियों की तोपें आग अगलने लगीं। अंग्रेजी तो काम में आने में कुछ देरी हुश्री, तबतक नानासाहब की तोपों ने धूम मचा दी। किन्तु क्रांतिकारियों की अिस बिजयसे चिढकर असाधारण जोश से इंक्लॉक आगे घुस पडा और हायलडर सैनिक, बेधडक सीधे तोपों पर टूट पड़े; रंच भी पीछे हटने का नाम नहीं। 'विजय या मत्य ' का नारा बुलंद करते हु जंगली सुअर की तरह दबाते ही गये, तब अिस संगठित और ढगदार आक्रमण के आगे क्रांतिकारियों की मेक न चली और अपनी तो मैदान में छोड़कर अन्हे हटना पडा।' अिस तरह बायॉ पासा टूट रहा था, तभी अंग्रेजी तोपों ने दाहिने पासे पर गोलों की बौछार शुरू की। अग्रेजी सेना की जीत देखकर क्रांतिकारी सेना कानपुर के मार्ग से पीछे हटने लगी। किन्तु निराशा के धैर्य से नानासाहब ने फिर से सब को सम्हाला और बची तोपों के साथ युद्ध जारी रखा । अिस बार सिपाहियों 'को धीरज बधा कर, अन्हे अत्साहित कर अनका नेतृत्व करने में नानासाहब को बहुत कष्ट झुठाने पडे । “ अिस तरह कानपूर की लडाभी लडी गयी। कातिकारियोंने असाधारण वीरता दिखायी। तलवार से तलवार टकरायी, किन्तु पीठ किसीने भी न दिखलायी। दृढतापूर्वक अपनी तोपों की रक्षा की। वे निशाना भी अचूक मारते थे। * फिर अकबार अंग्रेजोंने जोरदार हमला किया, अिधर क्रांतिकारियोंने भी पाणपन से टक्कर ली, किन्तु अनकी हार हुी और वे ब्रम्हावर्त की ओर पीछे हटे । १७ जुलाश्री को हॅवलॉक की विजयी सेना ने कानपुर में प्रवेश किया। जिस इवलॉक ने अपनी सेना द्वारा विजय की पहली लहर कानपुर तक पहुँचा दी तथा अंग्रेजों की डूबी प्रतिष्ठा को फिर से अपर अठाया, असे और असकी

  • रेड पम्पलेट.