पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३७७

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अध्याय ४ था ] ३३१ [दिली का पतन में न दिख पडता था। अल्टे, दोनों दल आपसी सहयोग से कुछ निश्चित योजना करने के बदले, अपनाही हठ पकडे रहते । कुछ सिपाही दिल्ली छोड भागे, जहाँ, कुछ, रच भी न हटने का निश्चय कर, सिरपर कफन बांधे रणमैदान में डट गये। ये सिपाही १५ से २४ सितंबर तक दिली के लिओ झूझे, और वह भी पूरी दृढता तथा वीरता से। जब अकाध अंग्रेजी दस्ता मसजिद या राजमहल में घुसने की चेष्टा करता तब पहरेदार सिपाहा अंग्रेजों को आते देख बंदूक के घोडेपर हाथ रख, बंदूक ताने, अपने देश के नामपर अन्तिम गोली दाग देता और अिसतरह अपनी मातृभूमि की अन्तिम सेवा कर मौत को गले लगाता। जब दिल्ली का तिहामी हिस्सा गोरों के हाथ चला गया तब सेनापति बख्तखों ने बादशाह के चरणों में प्रार्थना की, "दिली अब हमारे हाथसे निकली जा रही है, फिर भी यह मतलब नहीं कि विजय की पूरी आशा नष्ट हो गयी हो। अभी भी अक ही सीमित स्थल की रक्षा न करते हुआ बाहर खुले प्रांत में शत्रु को सताने का अद्योग किया जाय तो अन्तमें जीत हमारी होगी ! अब जो वीर अिस स्वातंत्र्य-समर में अन्त तक अपनी तलवारें सवार कर लडने को सिद्ध होंगे, अन के साथ दिल्ली के बाहर निकल जाने के लिओ मै लडेगा । शत्र की शरण मांगने की अपेक्षा अिस तरह लडते लडते ही दिल्ली छोड जाना में अधिक अच्छा मानता हूँ। सम्राट! आप भी हमारे साथ चलिये । आप के झण्डे के नीचे हम स्वराज के लिओ आखरी दम तक लडेंगे।" वृद्ध मुगल बहादुरशाहमें बाबर, हुमायूँ या अकबर का सौ वाँ हिस्सा वीरता होती तो सिस' बहादरी के निमंत्रण को तुरन्त स्वीकार कर, बहादूर बल्लखों के साथ वह बाहर निकल जाता। जैसे ही मरना था तो कम से कम सम्राट के योग्य मरना था। किन्तु, बुढापा, अससे अत्पन्न मानसिक निराशा, लम्बे अरसेतक सुख-भोगों से प्राप्त सुस्ती, अवं पराजय से टूटा दिल, जिन सभी कारणों से, बहादुरशाइ अन्त तक अधेड़बुन में रहा, कोसी निर्णय कर न पाण। आखरी दिन तो वह हुमाये के मकबरे में छिप गया, बख्तखाँ के निमत्रण को ठुकरा दिया और अिलाहीवरश मिरजा के कहने पर अंग्रेजों