पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३८०

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अग्निप्रलय] [ तीसरा खंड लक्ष्मीबानी के बराबर तो न थी, फिर भी वह साहसी, स्वतत्रताप्रेमी तथा संगठन की क्षमतावाली थी। दरबार के ओक सरदार महेबूबखाँ पर असे पूरा विश्वास था। न्याय, मालगुजारी, पुलीस तथा सैनिक विभागों में भिन्न भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति की थी। हर दिन दरबार लगता था। वहाँ सभी राजनैतिक प्रश्नोंपर चर्चा होती। नवाब के स्थानपर बेगमसाहिबाही सभी निर्णयों का नेतृत्व करती । अवध प्रात से अंग्रेजी शासन नष्ट होकर वहा असका कोणी चिन्ह शेष नहीं है, यह समाचार, बेगम की राजमुद्रासे अंकित कर तथा साथ बहुमूल्य अपहार देकर, सम्राट के पास भेज दिया गया। आसपास के जमीदारों माण्डलिकों तथा जागीरदारों को अपने सशस्त्र सैनिकों के साथ लखन चल आने के लिखे पत्र भेजे गये । नये नागरी अधिकारियों की नियुक्तियों, प्रतिदिन " बैठकों, और अन्य कारणों से स्पष्ट होता था कि क्रांति का काम पूरा हो कर रचनात्मक राजशासन का प्रारंभ हो चुका । किन्तु, दुर्भाग्यसे जिन अधिकारियों की नियुक्तियों में क्रांतिकारियोंने जितना उत्साह दिखाया था, अन्ही अधिकारियों की आज्ञा और शासन को सिर ऑखोंपर रखने की आतुरता तो न दिखलायी। सभी क्रांतियों में यही भूल अिसी तरह की जाती है। और अिसीमें प्रारभ से क्रांति के सर्वनाश के विष-बीज बोये जाते हैं। हर क्रांति का प्रारंभ विद्यमान शासन सस्था के नियम निबंधों को बल. पूर्वक तोडकर ही होता है। किन्तु अक बार अवैध शासन-सत्ता क अन्याय्य नियम निबंधों को बलपूर्वक तोड देने की आदत पड़ी, कि. अस हुल्लडबाजीमें सभी अच्छे बुरे निर्वघों को दुकराने की हानिकर सनक दृढ होती जाती है । दुष्ट और क्रूर अन्यायी नियों को तलवार के बूतेपर भंग करने की आदत सभी नियमों, निर्वधों, कानूनों को तोडने की आदी बन जाती है। विदेशी सत्ता को अखाड़ फेंकने के लिअ जो वीर मैदान में आते हैं, अन्हे हर प्रकार के शासन को खोद डालने की अिच्छा होती है । परायी सत्ता की बनायी मर्यादाओं को भंग करने के आवेग में अन्हें न्यायपरक और सदा आवश्यक, हितकारी, शासनसंस्थान