पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अध्याय १ ला] ९ [स्वधर्म और स्वराज्या, है। जिस शैतानने उसे हमसे छरसे लूट लिया है, देख वह कबतक उमे सँभाल सकता है? प्रभुकी इच्छाके विरुद्ध बना यह बनाव कबतक टिक सकता है? नहीं, कभी नहीं टिक सकता। अंग्रेजोंने 'अबतक इतने तो घृणित अत्याचार किये हैं कि अब, निश्चय, उनके पापीका घडा भर चुका है। और, मानों उसीको और भरनेके लिए हमारे परमपवित्र धर्मको नष्ट करनेकी शरारत उन्हे सूझी है ! ऐसी दगाके रहते भी क्या तुम घोडे बेचकर सो जाओगे १ किन्तु परमात्माकी इच्छा ऐसी नहीं मालूम देती, क्योकि. अंग्रेजोको इस देशके बाहर भगा देनेकी प्रेरणा, हिंदुओं और मुस्लिमोक हिरदयमें उसी प्रभुने पैदा की है। और निश्चय जानो कि उसी दयामयकी कृपासे और तुम्हारी वीरनासे इसी हिंदुभूमिमें उनकी कगरी हार होगी. उनका नाम भी यहाँ न बचेगा। हमारी सेनाम अवमे छोटे बडेका भेट मिटकर हमेशा समता का पालन होगा: क्या कि, इस प्रकारके धर्मयुद्धम स्वधर्मकी रक्षा हेतु जो अपनी तलवार उठाते है वे सभी श्रेष्ठ वीर हुतात्मा होने हैं। वे सभी हमागेलिए भाईके ममान है। उनमें छोटे वडेका भाव हो ही नहीं सकता। इससे हे भारतीय भाइयो, हम फिरसे कहते हैं, कि इस परम पवित्र सर्वोत्तम देव-कार्यके लिए उटो और रणक्षेत्रमे कूट पडो!" क्राति के नेताओ की ये उदात्त बातें देखभर भी क्राति की तह मे होनेवाला महान् कारण जो भॉप नहीं सकता वह, जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, या तो मूर्ख है अथवा बडा धर्त होना चाहिए। मानवको प्रभुके दिये हुये इस उदार निधिकी रक्षा करना अपना कर्तव्य है यह जान कर स्वधर्म और स्वराज्य के लिए भारतीय रणवीरोने अपनी तलवारें निष्कोपित की, इससे अधिक दृढ सदूत और क्या हो सकता है १ कातिकाल में समय समयपर मिन्न भिन्न स्थानोंसे प्रकट हुई घोषणाओं ही से यह स्पष्ट मालम होता है कि अब क्राति के मूल सिद्धान्तो की चिकि सा करते रहना वस्तुतः अनावस्यक ही है। ये घोषणाएँ किसी अनकटोटेसे नहीं की गयी थी, बल्कि आदरणीय तथा शक्तिशाली सिहासन ही से वे उद्घोषित की गयी थी। उस समय की क्षुब्ध क्रोध-भावना की जीती जागती परछौंई इन घोषणाओं में स्पष्टतया दीख पड़ती है। युद्ध के इत्त कालखण्ड में