पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४३८

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कयों कि,क्रांतिकारी इस इमारत से कब के चले गये थे । तब भी छः मीलों तक अंग्रेज़ उनका पीछा करते रही ओर तब भी मोलवी उन्हे झाँसा देकर छटक गया । अब लखनौ पूरी तरह अंग्रेज़ों के हाथ आ गया । इस बार अंग्रेज़ों ने लख्ननौ पर प्रतिशोघ की आग बरसायी ; उस का विवरण देने के लिए लेखक को अपनी लेखनी की लहू को स्याही में डूबो कर ही लिखना पडेगा ! अंग्रेज़ो ने इस नगर तथा राजमहल में कैसी लूटमार की, नागरीकों की सामूहिक हत्याएँ कैसे कीं, लाशों का विडंबन कैसे किया , यह एक लंबा चौडा और शोकपूर्ण करुण किस्सा है । रसेल जैसे लोगों ने लिखे पैशाचिक अत्याचारों के वर्ण , वे अंग्रेज़ों के लिखे हुए हैं यह किंचित न भूलते हुए भी, पढकर लखनौ से अंग्रेज़ों ने कैसा भयंकर बदला लिया होगा इसका कुछ अंदजा लग सकता है । क्रांतिकारियोंने अबतक और आगे भी, क्या सराहनीय संयम सखा था ! हिंदी और अंग्रेज़ी प्रतिशोघ में आकाश पाताल का कैसे अंतर होता है इसकी प्रतीती पाठिकों को, आगे दो लेखों के उद्धरण पढकर , हो सक्ता है । "लखनौकी बदिशाला में कइ अंग्रेज़ स्त्रियाँ तथा अधिकारी थे । छः महीनोंतक रहते हुए भी उनका बालतक बॉका न हुआ । किन्तू इधर छोटा बडा , सज्जन - दुर्जन किसी का खयाल न करते हुए कॉलिन के गोरे दस्तोंने जब सामूहिक हत्याएँ करते हुए शहर में प्रवेश किया तब उत्तेजित क्रांतिकारी राज्महल की ओर गये और बेगमसाहिबा अनुज्ञा माँगी कि कुछ गोरे बंदियोंसे बदला लिया जाय । श्री ओर , सर माउट स्टुअर्ट और अन्य पांच छः गोरों को क्रांतिकारियों के सपूर्द किया गया तब उन्हें वही पर गोलियों से खतम कर दिया गया ; किन्तू स्त्री-बदियों की मांग जब की गयी , तब बेगम ने स्त्री जाति की प्रतिष्ठा के नामपर साफ इन्कार किया और सभी मेमों को अपने जानने में ला रखकर उन्की जानें बचायीं।