पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४८२

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अनिमलय ] ४४० [तीसरा खंड महालक्ष्मी के दर्शन को जातीं। यह मंदिर मेक- तालाब के किनारे था, जिस में कमल खिले रहते । इर मंगल तथा शुक्रवार को रानी मंदिर को जाती। अक बार, मदिर से लौटकर दक्षिण दरवाजे से रानी आ रही थीं तब देखा कि हजारों भिखारियों ने अक रास्ता रोका है और गडबडी मचा रहे हैं। तब रानी ने मंत्री लक्ष्मणराव पांडे से अिस का कारण पूछा। असने पता लगा कर बताया कि 'ये लोग बहुत गरीब हैं और अति शीत के कारण दुःखी है, तथा रानी से प्रार्थना करते हैं।' दयालु रानी को बडा दुख हुआ; अन्होंने आज्ञा दी कि चौथे दिन सब भिखारियों को विकछा कर हर अक को अक मोटा कुती, अक टोपी और अक कंबल दिया जाय । शहर के सारे दर्जी कुर्ता, टोपी बनाने के काम में लगे । निश्चित दिन को राजमहल के सामने, सब भिखारी-जिन में गरीबों को भी शामिल किया गया था जमा हुआ। रानी ने अपने हाथों कपडे बाँट कर सब को संतोषित किया...नत्थे खाँ के साथ की लडाभी में घायलों के घावों को धोने के समय रानी स्वयं अपस्थित रहने का हठ करती। अपने सुख दुखों के विषय में जिस प्रकार रानी लक्ष्मीचाभी को ध्यान देते देखकर ही अन के घाव अच्छे होते; अन्हें अपने कर्तव्य पालन का पूरा प्रतिदान मिल जाता ।.........रानी लक्ष्मीबानी जब महालक्ष्मी के मंदिर में जाने निकलती अस समय की शोभा सो अवर्णनीय होती थी। कभी रानी पालकी में या कभी घोडे पर से जाती; जब पुरुष देश में होती थीं.........सुंदर साफे का छोर पीठ पर लहराता था, जो रानी को खूब फबता था । अन के आगे राजध्वज, मारू बाजों के साथ, चलता । अिस ध्वज के पीछे दो सौ गोरे घुडसवार रहते । रानी के आगे पीछे सौ सौ सवार चलते थे।......कभी कभी सारी सेना जलूस में रानी के साथ निकलती .........रानी के निकलते ही झाँसी के किले का नगाडा और सइनामी मधुर--ध्वनि से बजने लगती .........!* -

  • दत्तात्रय बलवंत पारसनीसकृत रानी लक्ष्मीवामी का चरित्र । पृ. १४७-१५१.