पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४८४

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उल्लेख हम पिछ्ले अध्यायो मे कर चुके हे। जहाँ कम्वेल जमना से अुत्तर मे हिमालय की ओर बद रहा था, वहाँ जमना के दछिन मेँ विध्य तक का प्रदेश जीतने को सर हचु रोन बदा। अुत्तर मे सिखो, गोर्खो तथा कुछ हिन्दी सैनिको और ज़मीन्दारो ने कम्बेल की सहायता की। उसी तरह दकशिन मे यू रोज़ को हेदराबाद, भोपाल आदि रियासतो की सहायता की। अुसि खास कर उसे मद्रास, बम्बइ तथा हैदराबाद की पलतनो की महत्वपूर्न सहायता थी। हिन्दी सेना से कुछ विभाग हचू रोज़ को विजय मिली यह कहने भर से स्पश्ट है कि हिन्दी सैनिको कि सहायता से ही यह हो सका। अकेले अग्रेज़ अपने बल पे विजय पाने की बात, सन्सार की अन्य अत्यन्त बातो के समान, असमभव है। दक्शिन विभाग को जीतने के लिये जमा की गई देशद्रोहियो की हिन्दी सेना को दो हिस्सो मे बाटा गया। एक ब्रिगेडियर विटलोक के मातहत रखा गया, जो जबलपुर से बडे और रास्ते मे सब प्रदेश को जीतते हुए रोज को आ मिले। दूसरा हिस्सा स्वयम रोज के मातहत था। जबलपुर से बिट्लोक चलेगा, तभी रोज भी मउ और झान्सी और कालपी होते हुए आगे बडेगा। योजना के अनुसार ६ जनवरी १८५८ को हचू रोज मउ से निकला। एक छोटी लडाई के बाद उसने रायगड जीता। वहा से सागर गया, क्रानतिकार्यो ने बन्दी बनाये गोरो को मुक्त किया, और दक्शिन जा कर १० मार्च को बानापुर ले लिया और चनदेरी का प्रसिध किला जीत लिया। २० मार्च को झान्सी से २४ मीलोपर इस विजयी अग्रेज़ सेना ने डेरा डाला। इन मुत्भेडो के कारन नरमदा से उत्तर मे देश्भर मे फैले क्रान्तिकारी दोस्तो की अब झान्सी मे भीड थी और उसी से व्क्रन्तिकारी के इस गढ को नश्ट करने के लिये रोज़ फुर्ति से झासी को चल पडा। किन्तु लोड कनिग तथा उसे आग्या दी की पहले वह चरखारी नरेश की सहायता करे, जो तात्या टोपे से घिरा था। इस आग्या पर वह अमल करता तो तो झासी ।