पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/८

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जानेसे ईस ग्रंथ के छपने की भनक उसके कान में पडी। महाराष्ट्र की बडी बडी तथा लब्धप्रतिष्ठ मुद्रण-संस्थाओं की एक ही समय में अचानक छापा मारकर तलाशियाँ शुरू हुईं। सौभाग्य से एक पुलीस के अफसर द्वाराही अिस की खबर उस साहसी सदस्य को मिली और पुलीस वहाँ पहुँचने के पहलेही मराठी पाण्डुलिपि सुरक्षित स्थानपर पहुँच गयी। लाचार होकर 'अभिनव भारत' वालोंने वह पाण्डुलिपि लंदन के बदले पॅरिस भेज दी और वहाँसे ग्रंथकार के पास पहुंचा दी गयी।

भारत में ईस पुस्तक का मुद्रण असम्भव सिद्ध होनेपर-ध्यान रहे यह १९०८ का समय था-उसे जर्मनी में छपवाना तय हुआ; क्यों कि, वहाँ संस्कृत साहित्य छपता था । किन्तु वहाँ के देवनागरी टंक (टाअिप) बिलकुल रद्दी और अजीब ढंग के होनेसे और विशेषतया, जर्मन जुडारियों को [कंपाझिटरों को] मराठी भाषा किस चिडिया का नाम है यह मालूम न होनेसे, धन और समय का काफी खर्च होने के बाद उस विचार को रद कर दिया गया।

सब प्रकार से असुविधायें देख कर, पराधीनता की बलिहारी से ईस

ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद

करना अभिनव-भारत वालोंने तय किया और तदनुसार आई. सी. एस् के विद्यार्थियों तथा बॅरस्टरी पढनेवालों ने अनुवाद करने का काम जुटाया। भारतीय विद्यापीठ के कीर्तिप्राप्त उपाधिधारी ये लोग 'अभिनव भारत' मिस गुप्त क्रांति संस्था के सदस्य थे। अनुवाद पूरा होनेपर श्री. वी. वी. अस् अय्यर की देखरेख में अिंग्लैडही में मुद्रित करने की सोची गयी। किन्तु ब्रिटिश गुप्तचर कोई मक्खियाँ थोडे ही मार रहे थे? अन्होंने जब्ती की डाँटडपट से तथा अन्य कारवायियों से अिग्लैड भर में उसे छापना असम्भव कर दिया। तब अंग्रेजी पाण्डुलिपि पेरिस भेज दी गयी। किन्तु उस समय की फ्रान्सीसी सरकार अंग्रेजों की भीगी बिल्ली थी। जर्मनी के हमले का डर होने से फ्रांस ईग्लैंड का मुंह ताकना पड रहा था, जिस से अग्रेजों के ईशारे पर फ्रान्सीसी घ