पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/७

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स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये अस राष्ट्रीय संघर्ष में सेना के भारतीय सैनिकों की सशस्त्र तथा सक्रिय सहायता प्राप्त की थी और मातृभूमि की मुक्ति के लिये भीषण युद्ध रचा था। सावरकरजीने देखा,कि क्रांतिकारी दृष्टिसे अिस मितिः हास को भारतीयों के सामने रखा जाय तो भारतीय नौजवानों में अक नयी लहर,ओक नयी स्फुरणा अमड पडेगी और अन के हृदय में अक नयी श्रद्धा घर करेगी,कि पराधीनता को नष्ट करने के लिये आज की स्थिति में अन्य सब मार्गों की विफलता देख,५७ का प्रयोग यदि फिर दुहराया जाय तो अस की सफलता,पहले से अधिक निश्चित रूपसे,प्राप्त करने की पूरी सम्भावना है।

सावरकरजीने अिस उद्देश से ग्रंथ की कल्पना की। भारतीयों को हृदय की भाषा में यह अितिहास समझाने के लिओ

वीर सावरकरजी की आयु कैवल २३ साल की थी, जब १९०८ में लंदन में यह पथ मराठी भाषामे पूर्ण किया। लदन की'फ्री अिंडिया सोसा.अिटी'की साप्ताहिक प्रकट बैठकों में. सावरकरजी अपने भाषणों में अपने ग्रंथ के कुछ अध्यायों का अंग्रेजी अनुवाद सुनाया करते थे। किन्तु अिससे या अन्य किसी कारण से अग्रेजी खफियों को अिप ग्रंथ के रुख का अंदाजा लग गया और अन्होंने अपना निश्चित मत अपरी अधिकारियों को बताया,कि यह अथ राजद्रोही,अत्यंत विद्रोहजनक कातिकारी साहित्य है। थोडेही दिनों में मूल मराठी ग्रथ से दो अध्याय गायब हुझे मालूम पडे। बादमें पता चला,कि खुफियोंने अपने इस्तकों द्वारा अन्दे चुराकर स्कॉटलंड यार्ड में पहुंचा दिये थे। फिरभी क्रांतिकारियों ने मराठी पाण्डुलिपी अत्यंत गुप्ततासे तथा भारतीय चुंगीविभाग अवं डाक विभाग की काकदृष्टिसे बचाकर भारत में लिच्छित स्थानपर पहुंचा दिया-1 किन्तु क्राति की भीषणता से भय खाकर 'महाराष्ट्र की बडी बडी मुद्रण संस्थाओंने ग्रंय छापने का साहस करना स्वीकार न किया। निदान,'अभिनव भारत के मेक सदस्यने अपने ही मुद्रणालय में छापनेका बीडा अठाया। किन्तु लंदन से भारत के खुफिया विभाग को सावधान किये