पृष्ठ:२१ बनाम ३०.djvu/२०९

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( २०२ ) भरपूर भाग इस पाप कमाई से वसूल करती है। गत महायुद्ध में जब समस्त प्रजा श्राहार ओर श्रावश्यक सामग्री के घोर कष्ट में पटीऔर इन श्रापापन्थियों मे हाहाकार खाती हुई प्रजा पर कुछ भी तरस न नाकर खूब अपनी गांठ मोटी को और निर्दयता पूर्वक प्रजा को मनमाना लूटा ता' सरकार का जहाँ ऐसे कानुन बना कर-जिनसे इनका स्वे- न्छाधार रुके-स अन्धेर को रोकमा चाहिये था यहाँ उल्टे ऐसे कानूम बनाये कि इस फमाई का आधा हमें दो। ठीक, उसी तरह जैसे किसी ज़माने में असभ्य और मूर्ख गा चोगे से अपनी चौथ लिया करते थे। मैं महीं समझता कि किसी राजा के लिये इससे अधिक क्या बदनामी को वात हो सकती है कि उसकी प्रजा के कुछ स्वार्थी लोग सी प्रजा के गरीबों का स्सूम घूसते हैं और सरकार उसमें पूरा हिस्सा पाकर सन्तुष्ट हो जाती है। छिः छिः!! अप मैं व्यापारिक नीति की तरफ पाठकों का ध्यान पाक पित करता है। जिसमें सरकार का पातक पूर्ण अपराध समझता हुँ । अपने विदेशी पारों को उसने तैयार माल भेजने के पूरे पूरे स्वतन्त्र और अधिकार दिये है । उनसे मरपूर टेक्स रूपी रिश्वत पाकर उसमे प्रजा-राण का पुण्य कर्तव्य मानो देव दिया है। अकेले जापाम हो की बात लोजिये। इसने जैसे घर के व्यापारी राके साले है और यह जिठना बोमान, 1