पृष्ठ:२१ बनाम ३०.djvu/३४०

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१२३ ) 1 हम उठे, जि, सुस्त्री हो । हम अन्त में फयि रवीन्द्र के शम्दी में ईश्वर से प्रार्थना करके अपना यह प्रन्य समाप्त करते हैं- "अहाँ मन भय से परे है, जहाँ मस्सक चा ,जहाँ स्य सत्रज्ञान है, जहाँ उन्नति छोटी छोटी घरेलु दीवारों में नहीं रोकी गई है, जहाँ हदय फे भन्तरतम प्रदेश से सत्य की अमुसमयी धारा निकलती है, महो अनवरत परिश्रम रनविस्था की ओर बाह फैलाये मुए है, जहाँ पुखि के निर्मल और पवित्र स्रोत मे अपमा मार्ग निरर्थक व्यवहारों के मयामक रेगिस्तान मेंमहीं खो दिया है, जहाँ मानसिक प्रधाद, पषिभ मिधार और कर्म के वि स्वीर्ण मैदान में बह रहा है, जहाँ वय आपकी अक्षर सुपा- धारा-अपाहिनो सौम्प मूवि को धारण करने के लिये प्रस्तुत और जहाँ इन्द्रियाँ पापके सर्प स्वरूप मे भक्तिपूर्वक सेषा करने के लिये कटि पद है। मेरे स्वामी ! मानन्द और स्वतन्त्रताके उस शिमर पर मेरा देश पहुंचे। भोश्म शान्ति । शान्ति । शान्ति । ť