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॥१०३॥ . दोला। कुंवर बात साची कहीं अति कठोर से राय। जब तुहि पानि संतावहीं मेरी कछु न बसाय ॥ चोपई। कुंवर कहे तुम सुननु कुंवारी। क्या उर मोहि दिषावे भारी॥ सुर असुर जीतन नलि पावे। नर बपुरा सनमुष नहिं पावे ॥ तोहि सोच काढू की नाही। .......... कृष्ण देव जादों श्रोतारी। तू क्यों मोहि उरावे भारी॥ . कुंवर लस्या दीनी गलबांही। लसी कुंवरि चितई मन माझी ॥ दोला। कुंवर बराई क्या करो सुनि पावेगो राय। रछक सुष के कारने उतरे मोहि गाय ॥ .. . चौपई। पितादत्त हों दीनी नांही। छाडि कुंवर मेरी गलबाही । छाडि लाथ ते मन भय राषी। चांद सूर दोउ है साषी॥ करि बिवाह मन भयो अनंदा। ज्यो तरुवर मे बिगसे चंदा ॥ कर बीरी उषा कर लीनी। से कुंवर तब मुष मे दीनी॥ कुंवर पान अप लाथ संवारे। उषा मुष दीने उजियारे । .............