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॥ १२२॥ ग्रामदान अात्मा नीकों। तातें कर धर्म अति श्री कों॥ अष्ट बिबाह धर्मबिद कहे। बाल्य देव आर्ष अरु अहे ॥ प्राजापत्य भासुर गान्धर्यो। राक्षस अरु पैशाच अव: ॥ दोहा। चारि प्रादिके विप्र को बट मात्रिय हि ललाम । प्रासुर बेश्य शूद्र कह जामो फल्द अभिराम ॥ राक्षस अरु गाधर्व है यात्रिन को सुखदान । आसुर अरु पैशाच ए कवि जोग्य न जान॥ सालार दान कन्या को ब्रालय कहत हैं जोन। यक्ष इमिणा मे कन्या को दान देव हे तीन ॥ तुम दोउ मिलिके सब धर्म हि कीज्यो इमि कहि श्राम। दीवो जो कन्या को सो है प्राजापत्य ललाम ॥ ले वे गाय देत जो कन्या तीन आर्ष अभिराम । ए चारों विवाह विहित है विप्रण को गुण धाम ॥ बलुत लेइ धन देर फिरि कन्या प्रासुर साच । सुप्त प्रमत्तन की कन्या को लखिो सो पेशाच ॥ मारि बन्धु रोवत कन्या हरि करे सो राक्षस उछ। यात्रिन को यह योग्य है घोर करे सो मू6॥ व्ले सु काम बस कन्यका लहि एकान्त सह धर्म । पाणि गहे गान्धर्ब सो ईश्वर साक्षी पर्म ॥ रूम सकाम तुम पें भए हम पें तुम कु सकाम। करि गान्धर्व बिबाह मो भार्या हो अभिराम ॥