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॥११॥ तत्र शकुन्तन मधि हम चालि। ल्याय दियो कन्या पर याति॥ दोला। जन्म सु दाता प्राण ताता दे अन्न कों जोन। . . धर्मशास्त्र यह कहत हैं पिता तीनि हैं तोन ॥ - चरणाकुलकछन्द। भे शकुन्त बन मे खवारे। तो शकुन्तला नाम बिधारे॥ मुनि बर कही कथा लम जैसें। भई शकुन्तला कन्या ऐसें ॥ कन्व हि भूप जनक हम मानें। म स्वपिता को नहि जानें। शकुन्तलोवाच। सुनो जन्म अपनो हम जैसें । तुम सों कहो भूप सब तेसें॥ ले कन्व की कन्या जानो। हे नरपति कछु और न मानो॥ - दुधन्त उवाच। प्रगट राजपुत्री तुम बामा। भाऱ्या मम जे गुण धामा॥ नाना स्त्र बसन बर नीके। भूषण दिव्य लार सुठी श्री के॥ तुम को देत अोर जो भाखो। राज्य सकल अपनो करि राखो॥ व्याल श्रेष्ठ गान्धर्ब सो जानो। सों तव संग करत हम मानो॥ शकुन्तलोवाच। फल अानन गो पिता समारो। घरी एक मल् श्रावन हारो॥ तुम्हे मोलि देले सो जानो। तबलों करलु क्षमा यह मानो॥ दुधन्त उवाच। तुम्हे भजो हो चाहत प्यारी । है त्वदर्थ थिति इला हमारी॥ बन्धु अाफ्नो अात्मा जानो। पापनि गति अात्मा अनुमानो॥