॥१३ ॥ बदन जबलों अादरस मे लखत है न कुरूप। करत तबलों श्राप को वन रूपवान अनूप ॥ मुकुर मे जब लखत है मुख चित्त दे अनुमानि। परत अपनो और को तब रूप अन्तर जानि॥ रूपमान न करत कब और को अपमान। बकत में टुर्बचन तेई नीच सुनलु सुजान॥ सुनत मूरख नोकि नागा जल्पकन की शीख । गहत हैं ते दोष को इमि ज्यों बराह पुरीख ॥ सुनत में बर प्राप्त बक्तन के शुभाशुभ बेन। गल्त गुणवत वाक्य लंस सु क्षीर पीवत पेन ॥ कहि कठोर सु अन्य सों कछु साधु अनुपछितात। कहि असाधु कठोर तेसे होत पुलकित गात ॥ साधु पावत मोर ज्यों कहि बडेन प्रति मृदु बेन । साधु सों टुर्वचन कहि त्यों लेत दुर्जन चेन ॥ दोष जानत नही ते जन लल्त मोद महान। दोष दर्शो मूर्ख ते जग कहत पापु समान॥ कहा है अति हास्य या तें सुनलु जग मे और। कस्त दुर्जन मनुज दुर्जन सुजन को क्षिति मोर ॥ धर्म चुत तें उरत नास्तिक कहा अास्तिक बात । यथा देखि सक्रोध पन्नग कल्लु को न उरात ॥ श्रापु करि उतपन्न पुत्र स्वसदृश छोउत जोन। लत देवत तास श्री परलोक लस्त न तीन ॥
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