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॥५०॥ जू विराजे हैं। दुल्लू ओर ते परिचान्यो ठग तो उर के मारे कापि उठे। . जयदेव जी को इन सबनि के प्रावने सों ऐसो लर्ष भयो जैसे कोउ बड़े मित्र के मिलने सों श्रानंद होतो है। जैसे ठगनि ने अपनी दुष्टता नहीं छोडी तैसे जयदेव जू ने ढूं अपनी साधुता नहीं छोडी। राजा कों बुलाइ कन्यो तेरी साधु सेवा को फल इतने दिन पर ग्राजु उदे भयो है ऐसे साधु अबलों कबलूं पाए नहीं ले भाग तेरे जागे हैं इन सबनि की सेवा पोरनि सों सरस भली भांति कस्यिो। राजा इन सबनि के हाथ पकरि मंदिर के भीतर ले गयो नर लगाय तेल उबटनो मलवायो नरवाय भोजन करवायो। ज्यों ज्यों उन सबनि की सेवा लोती जाय त्यों त्यों र सब उलटो समुझते जाहि। जयदेव जू को देखि देखि मन में कहें कैसे लोगन को माला फले हम ने तो लियो सो बंद में पो हैं। वे अपने जानते अच्छी तरह रखें पे र सूखे जाहि। जयदेव जी सों बिदा मांगी। जयदेव जू ने राजा को बुलाइ कयो ए सब जो धन चाहें सो देके बिदा करो। राजा ने इन सबनि को स्वजाने के कोठे में ठाको करि कन्यो अपनी इच्छा पूर्वक धन जो ले सको सो लेछु । ठग जो ले सके सो ले चले। जयदेव जू ने शेय नर संग कराय दये कि अपनी सरलय के पार करि अावो। इन सबनि जान्यो कि घर में न मायो मारने को नर संग करि दये हैं। नरनि ने मार्ग में ठगनि सों पूख्यो इतने दिन तें स्वामी जी ने जैसी तुम्ह सबमि की सेवा कराई है तेसी काढू की न भई के स्वामी जी सों तुम सौ कहा नातो अरु कहां की पहिचान है। ठग सब ने कन्यो म सब ओर एक राजा के था