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बनाए हुए जैन मंदिरों को उजाड़ डाला। श्रांवडा आदि कुमरपाल के जैन अमात्यों से और उससे बनती न थी। एेसा पता चलता है कि यह निर्दयी तथा घमंडी था। उदयपुर के अंकित लेखों में उल्लिखित है कि ११७३ ई० में सोमेश्वर अजयपाल का कर्मचारी था। उसने कपर्दि नामक व्यक्ति को ब्राह्मणों का अनुयायी होने के कारण पहले तो अपना कर्मचारी नियुक्त कर लिया, किन्तु बाद में उससे कुछ अनबन हो जाने के कारण उसे उबलते हुए तेल की कढ़ाई में डाल देने की आशा दे दी। दूसरे अवसर पर उसने राम-चन्द्र नामक एक जैन पंडित को तपते हुए ताँवे के पत्र पर बैठने का दराड दिया। आवंडा (आभ्र-भट्ट) नामक उसके सरदारमें और उसमेंं इन्हीं सब कारणों से एक छोटी सी लड़ाई भी हुई थी। इसमें आवंडा मारा गया। १२३३ ई० में अजयपाल के विज्जलदेव नामक द्वरपाल ने खंजर घुसेड़ कर उसकी हत्या कर डाली।

   टाड़ साहब का मत है (वेस्टर्न इणडिया) कि अजयपाल मुसलमान हो गया था, किन्तु एेसा सिद्ध करने के लिए उपयुक्त प्रमाण नहीं दे सके हैं। इसके बाद इसका पुत्र मूलराज द्वितीय गढ़ी पाटनकी गद्धी पर बैठा। मूलराज अल्पवयस्क था, अतः उसकी माता नैका देवी जो कंदव राजा परमादि (११४७-११७५) की कन्या थी, राज्य की सारी व्यवस्था करने लगी। इसका भाई भीम देव सेनापति नियुक्त हुआ। यह बड़ा शूर था। दो वर्षो के अन्दर ही युवराज मूलराज का देहान्त हो गया। (श्राधार ग्रंथ वाम्बे-गजेटियर गुजरात)
   अजयसिंह-(१२६०-१३०१ ई०) चितौड़ के राणा लक्षमणसिंह के पश्चात अजयसिंह को चितौड़ छोड़ कर मारवाड़ की पश्चिमीय सरहद पर श्रारा वली की घाटी में स्थित केडवाड़ा नामक स्थान में रहना पड़ा। जिस समय लक्षमणसिंह जौहर के लिए निकलने लगे थे (देखिए लक्षमणसिंह) अजयसिंह को आदेश कर गए थे कि अपने बाद अपने भाई अमरसिंह (यह युद्ध में पहले ही मारा जा चुका था) के पुत्र हमीर का गद्धी पर बैठना। अलाउदीन ने जब चितौड़ जीत लिया तब वह कुछ दिन तक वहाँ ही ठहर कर मन्दिरों को नष्ट भ्रष्ट करता रहा। जब सम्पूर्ण नगर उजाड़ डाला तो भालोर के मालदेव नामक अपने सामन्त को वहाँ का भी प्रबन्ध करने के लिए नियुक्त किया। दिल्ली के सिपाही तथा सवार मारवाड़ भर में रक्षा करने के लिये नियुक्त हुए। अजयसिंह को नगर छोड़ कर छिप कर रहना पड़ता था और इन लोगों से नित्य भगड़ना पड़ता था। इन सब में मुंजा भील नामक एक अत्यंत बलिष्ठ नेता था। उसने एक बार 'शेरो' नाले पर

चढ़ाई की अौर साथ ही अजयसिंह का सामना कर के उसके मस्तक पर भाले का वार किया। अजयसिंह के दो पुत्र थे। एक का नाम सज्ज्नसिंह तथा दूसरे का अजीमसिंह था। सज्ज्नसिंह की उम्र १४ वर्ष तथा अजीमसिंह की १६ वर्ष की थी। परन्तु वे इस संकट के अवसर पर काम न आए। इसलिए अजयसिंह ने हमीर को, जो अपने नाना के घर था बुलवाया और मुंजा से बदला लेने की आशा की। इस पर हमीर मुंजा का सिर काट कर अपने चाचा के पास ले आया और उसके सामने डाल दिया। इस पर अजयसिंह अति प्रसन्न हुआ और यह कह कर कि तुम्हारे भाग्य में देव ने साम्रज्योपभोग लिखा है। इसलिए आपने भतीजे के मस्तक में मुंजा के खून से तिलक किया। अजयसिंह के दोनों पुत्रों में छोटा अजीमसिंह थोड़े ही दिनों के बाद केड़वाडामें मर गया। दूसरा सज्जनसिंह रह गया।

   अजयसिंह को यह भय था कि उसकी मृत्यु के पश्चात कहीं सज्जनसिंह और हमीर में राज्य के लिए भगड़ा न हो। अतः अपने जीवन काल ही में उसे देश निर्वासित कर दिया। 
    सज्ज्नसिंह मारवाड़ छोड़कर सीधे दक्षिण में आया और वहीं बस गया। इसी के वंश में शिवाजी उत्पन्न हुए थे जिन्होंने औरंगज़ेब के नाकों में दम करके मुसलमानों से महाराष्ट्र देश छीन कर स्वतन्त्रता स्थापित की थी। अजयसिंह से शिवाजी तक निम्नलिखित वंश-परम्परा दी हुई है- अजयसिंहं, सज्जनसिंह, दलीपसिंह, शिवाजी, मोराजी, देवराज, उग्रसेन, माहुलजी, खेजूजी, जनकोजी, सटबाजी, संभाजी और उनके बाद छत्रपति शिवजी। लोकहितवादी में माहुलजी के बदले भलोजी और संभाजी की जगह साहजी इत्यादि भिन्न नाम दिये हैं (टाड राजस्थान)। कुछ महाराष्ट्र इतिहासकारों का मत इससे भिन्न है। चाहे कुछ भी किन्तु शिवाजी को रज्यतिलक देते समय इनको सज्जनसिंह का वंशज मान कर राज्याभिषेक हुआ था। 
     अजबाइन- संस्कृत में इसे धनानी, बँगला में न्यमानी, गुजराती में चवान, मराठी में श्रोंवा कहते