पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२२०

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भास्तषर्वकौ चारों दिशाओमैं चार साम्प्रदायिक क्योंकी स्थापना को । अपने प्रधान शिष्य सुरेम्ब- राचार्य। 'टोटका हस्तामलक्र ।बोत्स्थाचायए द्वारा अबैत' मतानुरुप वहुत सा साहित्य हैयाशक्रियरा इस तेखकै अंतमें दी हुई ग्रंयसूचौसे बावन सांश्याथके झाका विस्तार स्पष्ट दिखाई देगा मादिशंकराधार्ममै यद्यपि मूल अद्धयतमतकी स्थापना की थी. फिर भी उसमें के पल्ले दीयों का मार्डन वादकै अधिकारों और स्वतंपग्रंप कर्मार्मोनेकाट दिया ओर अर्दत मत्तकोसुन्दर तथा सुदृयघस्थित रुपमें सामने रखा।

अएँतमत समाधी मिशाल ग्रंथ भएडारमैं विहसुखाचार्यकी "चिहृसुखी' मधुसूदन सरखतोफी ‘अनुश्तसिद्धि' ओर ओदृर्ष पांऐडरुदृन्न 'खण्डन शा'श्ली तीज ग्रंथ प्रधान हैं । इसके अलावा नि। फर्मसद्धि सिबांत से।। आदि मंयंभी प्रसिन्द्रहैं उसी प्रकार सदत्नन्दकृत "थेपास्तसार' धमैराजरुत थेदान्त परिभाषा, आद्यशंकरस्वार्यकृत 'उपदेश सहसो' ओर ब्रधशेक्षानूहु, आदि सरल ग्रंथ अर्दतमतका आभास सिये प्रारंभमैं षदुत उपयोगी सिद्ध होंगे 1 स्वसथ क्योंर्मे जो ग्रंथ बादमै विरोधी साम्प्रदायिकौ का संउनकरने कै सिये निर्माण किये गये उनमे आयन्त क्तिष्टता अरैतमत नास्तिक बिजारोंकीपस्थाबाधि हैं।

द्धृसका विचार ऊपर किया जा कूका है कि भारतीय तत्वज्ञान किस प्रकार उपनिषद ग्रंथोंसे प्राट्ठाहूँत होकर उसकी परिणति प्रथमतदृ सांरुयके पौपोस थापचीस तस्वीमेंहुई ओर वैशेपिकौकै सास्यदाथों मैं से होकर कमाना: बही तत्वज्ञान दीतोन मुख्य- तत्यौपै कल्पित हुआ तथा अन्तमैं एक अविभाज्य हूँधर्णनीय तत्वदट्टगकौ प्राप्त ट्टूडगृ । वित्त ऐतिहा-सिक दृष्टिसे देखनेपर मातूप्र होगा कि शंकरा- चार्यके पश्चात् रामानुजाचार्य.' "विशिष्टार्दश्त' माधवाचार्थने र्दत और वड्सभस्वार्थने 'शुखाहूँसां- ये तीन मत स्थापित किये । रन चारों मतौमैँ कुछ क्यों, लाते भी और कुछमैं परस्पर विरोध था श्चर्मे शंकराचार्य आनमार्गके पोषक. 'मापा वाद' उपस्थापक और बित्तशोधनकै लिये क्यों- पासना ग्रहण करनेवाले हैं । रामानुजाचार्य आजके समान ही कर्मोंपासना की आवश्यक समझते हुए नूत्माके विरोधी तथा भफिके प्रतिपादक थे 1 पूर्ण ८ ती धीमन्याधवाबार्य मायाके भार विरोधी थे इन्होंने भक्तिकै महात्मा को सड़स्कर यह निश्चित किया कि जीवकों नित्य ‘परेश' की सेवा करनी चाहिये । औयशष्णुचुर्ष पूर्ण अर्दतकों मानते हैं परन्तु भाषाका सर्वथव विरोध करतेहैं । इन्होंने भी भक्रिमार्गको बहुत अधिक मफ्लूत्य दिया । उनके ओर मांघव साम्प्रदायके कारण डानमार्ग कुछ संकुचित सा होगया । 'जीप' और "जगत" का स्पष्टीकरण करनेके सिये भी शंफराचार्यने निजी बाद' को स्वीकार किपा बोर: 'जैसा है देखा क्यों नहीं दिखायी देता' इसका स्थाक्रिशण संसारकै सम्मुख किया । रामानुजने 'परिणामवत्य' को हुँकार फड्डदृ सिद्ध करनेका पृयत्न फित्रणु कि "जीव्र'ओर 'जगत' ब्रहा का ( जिस प्रकार दही दूधका परिणाम है ) परिणाम है । माधशणर्यने आरंभधाद' को अंगीकार कर यह दिलजले की कौशिराकौ है कि किंशुस्त म्नहाने लीव ओर जगत की उत्पसिकी है । धहाभाचार्यने 'अधिकृत परिणाम बाद' ही को स्वीकार किया है।

इस तरह इन विरोधी न्नरुत्रर्योंकै मतभेहोंकों देखनेपा यह सवाल पैदा होता है कि जव सकरा- चार्यनै परमार्धिफ विचारीफों अन्तिमतत्व "अबैत की स्थापना कर ही तव अन्यान्य आचार्योंने किन कारुणोंसे उनकें भतकै विरुद्ध प्रयत्न और धाइ- विवाद उपस्थित किये ? किंतु इन चारों विचार धारात्रोंका सुहाग निरीक्षण करनेपर यह दिखायी देगा कि रामनुजादि साम्प्रपांय संस्थापन केबल समाजकी रष्टिसे बिचारकाट श१कराचार्थका विरोध किया । क्योंकि झेषसार्दत’ सिआँत यद्यपि पूर्णत: सत्य मानने योग्य हैं फिर भी यहि अबैत सिसांर्तोंका बोलबाला दो जाय तो अनधि- कारी उन्मप्त और उरेंशर्शगामीड़े उहू…सकबे हैं। साधारण जनता "अर्दत्र' सूदम हैवेचारांका मनन करनेमैं असमर्थ है । इसलिये 'क्षहंब्रशास्मि' जैसे भहत्याड़पीका अर्थ संभव है, 'ऋर्णकृत्वा घृतं पिवेठहुँ जैसे चार्वाफूकै देहात्मवाद की तरंह समझ बैठे । इसी सार्वत्रिक अज्ञानी उतपन्न होनेवाले-भी-पतन ले डरकर जनताकौ बचाने के जिये ब्रपिंकै आचागौने अपने अर्दत विरोधी मनोंकौ प्रस्याहिंत किया हो । मृरघघहेर्शफहुंस्वार्मू पर "प्रडछुन्न' पौध कहकर जो आरोप फियरदृ उसके विषयमैं कुछ लोगौका यदृफथनरै कि "अनुश्तमत' धौडेसे परिवर्तित रुपमें बिडानधादौ नोंदों के मतकै पोस तक पहुँच जाना है । इसके सिवा 'अबैत' मत्त का विरोध करते समय उत्तरकालीन आचार्योंमे उसके कुछ अंसोंसों ऐसेहीं जानबूझ कर होड़ दिया । क्योंकि केबल परमार्मिक दृष्टिसे ही यह कहा जा सकता