पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आवश्यकता थी । ठीक रसंशिबोकेपर आदिर्शकराच्चि चार्यगे अद्रश्त' मम की स्थापमाकर समस्त जनताकौ डानकणिडकी ओर झुकाया।

धदैतसिद्धतिकै भुल प्रबेभ- (१)एकही एक आन्मत्तत्य है । तत्रिछ. तत्सज्ञातीय अथवा तद्वि- जातीय दुसरा भी नहीं है। (२) यह आत्म- तत्व 'निर्दिशेप’कृहसलिये "यह ऐसा है या या।बैसा है' इस तरह इसके समन्धमैं कुछभी नहीं कहा जा सकता 1 अर्थात् यह 'निर्मुण' होम बजाते इसपर शुभाशुभ गुर्ण१का भी आरोप नहीं कियपु जा सकता (३) यह खर्यु शगुन सरुपड्डे।अर्शरिआनइसकागुण नहीं हैं ओर इसीलिये मातृत्व, प्रेयत्व आहि गुण आत्मतत्वर्मे संभषवीय महीं है । ( ध ) परमात्मा स्वस्थता कूटस्थ, नित्य और अद्वितीय है । रसीकौ 'व्रह्माद्धश्त' पहले हैं (धु) परब्रह्महीं "माया” रूपी उपाधिजे कारण ईश्वर" और 'अंषिद्या० रुपी उपाय: कारण जीय' होता है बोर जड़ासृष्टि आभास हैलेसे झूठोदै अर्थात्केंहुंल पुकारी 'द्रसृदृसत्य है । ( ६) ब्रह्म, खस्नाता अभिन्न किंतु हेस्ननेमें भिन्न दिखायी देनेवाली "त्रिगुणश्याफ माया' शक्तिको साथमैँ लेकर जगतकों उत्पन्न करता है । संलेपर्में यौ कह सकते है कि परत्रह्मके प्रति अज्ञान रुपी मायर्स कारण संसार ग्रांतिर्मे पड़ जाता है, जैसे ररुसी देखकर साँपका भ्रम करना । यही'बिधर्तषख' है । (७) पणाका विवर्तरुपौ परिणाम हींयह हैहुँफे आस्मृसशुत्मफ जग मिथ्या है । (=) है इसी भूरू जनानाम "वदति" शास्त्रका अन्याय होता है. रस कारण यह शाख भी मिथ्या है । किंतु खपाभे दिखायी देनेवाले पदार्थोंफी तरह शास्त्र तत्वडान के लिये साधनीभूत होते हैं । ( १ ) अर्थज्ञानके साधनीधूत प्रमाण छ: है -प्रत्यतू अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थोंत्पसि सोर: अनुमती-ध १० [जीव परमपुत्मासे _ड्डशभिन् है द्दसबिये वह विभु ओर फ्लो है । जीबोंका अनेकत्व ओपाधिफ है 1 ( ११ ) क्यापर विचार आरंभ करनेके पूर्व अ ) नित्यानित्य वस्तु बिबेक ( आ ) क्यामुषार्थ फतमोग विराग, ( इ ) शमादि षटूफ समसि, नुमुक्षत्य, इनचार साधनोंकी प्रातिकौ आवश्यक्ता ओर ( ६२ ) "अई प्रशास्मि" "यास्यसि" " सत्यें- डान मनंतं क्या' रत्यादि वेदतिकै महावाक्योंकै अखण्ड अनुसंधानसे "आत्मसाक्षात्कार होनेपर एसो लोशोंसद्देह मुक्ति प्रात हींसोहै। प्रारंब्धफमों का क्षय होनेपर शरीर त्यागकै पश्चात् प्राप्त होने वाली अपंड निदेद्धृ मुक्ति१ दुखाकै परे जो अवस्था है उसमें जीव्र-ब्रह्मकौ एकता होखी है।

शंकरमत्तकौ एक प्रधान विशेषता यह है वि: उसमें देवता, शास्त्र. सृष्टि ब्दुचनाशास्र, मानसशास्त्र, परलोक सम्बन्धी कल्पनाएँ उसे किसी पर भी विचार करनेसे उसके दो रूप दिखायी देंगे उदाहरणकै लियेपरमार्थ दृष्टिसे निमुँण, निक्तिय शति और निरंजन-श-ह का डानरूष घणा व्यावहारिक द्दधिसे 'परमेश्वर' की संजासे पोषित होता है । इस टष्टिसे व्यवहारिक दृष्टिसे तो आरंभ ही से "धातायशा पृर्वमफहपयहूँमृकें अनुसार विश्वकीउत्पत्ति, स्थिति और लय होता रहता है ओर संसार चक अबाधित खरुपसे घूमता रहता है । परमार्थिफ दृद्विसे जीव पर ब्रह्यरुप है । और उसीके द्वारा व्यवहारार्थ स्वीकृत किये द्वार अथिधारूपी धटनाकै कारण यह कष्टभोभाना है और इसीलिये "मैं-त्" आदिमेद होजातेहैं । व्रदृउत्त्र भाष्यकुँ उर्षयूँदुधपृसांबुस्ताघना)इन दोनों खक्योंका समन्ध केबल आभासम है । पारमार्थिक दृष्टिसे सृष्टि ५ रचना का अहूँ सत् सरुपका भी प्रकाशन है।कं आरंभ ही मै शंकराचायेजी लिखते हैं-' यर नित्यकै अनुभवकी वात है कि मैं या तू इन दो कल्पनाओं द्वारा व्यक्त होनेवाले विषयी और विषय ये प्रकाश ओर अधिकार को तरह परस्परविरोधी हैं । इसहिशिषेशशकी फ्लारफभी होशिश्चिहीं सस्ती। जब ऐसी बान है तय हर एफकै धर्म एक दूसरैझे साथ तेल दुवा चुकते हैं।

ओर और विधयोंकी ताए मोक्ष तथा उसके साधनके भी दो रूप विधायी देते हैं । साघनोंमे निर्णय ब्रह्मका साक्षात्कार फरन्देनेयाली 'क्या' विद्या है ( परा यथातदक्षवधिशम्यते ) ओर, अपरा' विद्यावती अन्तर्गत वेद-येदणि तथासा शाखापि हैं । आँका मतका अभिप्राय यह है कि अपरा' विद्यते कारण सगुण प्रहाकी प्राप्ति होती है और 'परा' विद्या द्वारा पर ग्रहाके साथ एकरुपता होती है । इसप्रकार एक वार ब्रहासा- क्षारुकार हो जानेपर

मिद्यते श्वयग्रंयिडिछयंते सर्व संख्या: खीयन्देचास्प कर्माणि तस्थिष्टटे परावरे दृश्यकी ग्रन्धि खुश जाती है, वह स्वतन्त्र दो जाता है और समस्त संशयका नाश हो जाता है इस प्रकार क्लप्ताज्ञात्मार होनेपर उसे कोई फर्म करना भी पाकी नहीं रह जाता अबैत प्ताध्दप्रदाम का साहित्य…श्रीमरुर्द्धफराचार्य ने धदैत मतकी स्थापना की और साथहीं साथ